वैष्णव को महाभाग अर्थात सौभाग्यशाली कहा जाता है। जो वैष्णव बन जाते हैं और भगवत भाव की प्राप्ति करते हैं उनको महा भाग्यवान समझा जाता है।
चैतन्य महाप्रभु ने व्याख्या की है कि ब्रह्मांड के विविध लोकों में जीवात्मा भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमण कर रहा है।
जीव जहां चाहे स्वर्ग अथवा नर्क उस स्थान की तैयारी कर के वहां जा सकता है।
अनेक स्वर्ग लोक, अनेक नरक लोक तथा अनेक योनियां है।
योनियां 84 लाख है और जीवात्मा अपने वर्तमान जीवन के मन की प्रवृत्ति के अनुसार शरीरों की रचना करता हुआ इन योनियों में चक्कर काट रहा है क्यो ?
जैसा बोना वैसा काटना
श्री चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि ब्रह्मांड में भ्रमण करते हुए इन असंख्य जीवों में से कोई एक भाग्यवान होता है, प्रत्येक नहीं।
यदि प्रत्येक भाग्यवान होता तो सभी ने कृष्ण भावनामृत अपना लिया होता।
कृष्ण भावनामृत का सर्वत्र बिना किसी मूल्य के वितरण किया जाता है परंतु सभी लोग इसको स्वीकार क्यों नहीं कर पाते
क्योंकि वे अभागे होते हैं।
अतः चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि केवल भाग्यशाली लोग ही कृष्ण भावनामृत को ग्रहण करते हैं और फलस्वरुप आशापूर्ण, सुखी आनंदमय और ज्ञानमय जीवन प्राप्त करते हैं।
जय प्रभुपाद वृन्दावन
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