माघ एक ऐसा माह जो भारतीय संवत्सर का ग्यारहवां चंद्रमास व दसवां सौरमास कहलाता है। दरअसल मघा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने के कारण यह महीना माघ का महीना कहलाता है। वैसे तो इस मास का हर दिन पर्व के समान जाता है। लेकिन कुछ खास दिनों का खास महत्व भी इस महीने में हैं।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 106 के अनुसार

माघं तु नियतो मासमेकभक्तेन य: क्षिपेत्।

श्रीमत्कुले ज्ञातिमध्ये स महत्त्वं प्रपद्यते।। 

अर्थात जो माघ मास में नियमपूर्वक एक समय भोजन करता है, वह धनवान कुल में जन्म लेकर अपने कुटुम्बजनों में महत्व को प्राप्त होता है।

पद्मपुराण, उत्तरपर्व में कहा गया है

ग्रहाणां च यथा सूर्यो नक्षत्राणां यथा शशी

मासानां च तथा माघः श्रेष्ठः सर्वेषु कर्मसु

अर्थात जैसे ग्रहों में सूर्य और नक्षत्रों में चन्द्रमा श्रेष्ठ है, उसी प्रकार महीनों में माघ मास श्रेष्ठ है।

माघ में मूली का त्याग करना चाहिए। देवता और पितर को भी मूली अर्पण न करें।

माघ में तिलों का दान जरूर जरूर करना चाहिए। विशेषतः तिलों से भरकर ताम्बे का पात्र दान देना चाहिए।

महाभारत अनुशासन पर्व के 66वें अध्याय के अनुसार

माघ मासे तिलान् यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति। सर्वसत्वसमकीर्णं नरकं स न पश्यति॥

जो माघ मास में ब्राह्मणों को तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओं से भरे हुए नरक का दर्शन नहीं करता।

श्री हरि नारायण को माघ मास अत्यंत प्रिय है। वस्तुत: यह मास प्रातः स्नान (माघ स्नान), कल्पवास, पूजा-जप-तप, अनुष्ठान, भगवद्भक्ति, साधु-संतों की कृपा प्राप्त करने का उत्तम मास है। माघ मास की विशिष्टता का वर्णन करते हुए महामुनि वशिष्ठ ने कहा है, जिस प्रकार चंद्रमा को देखकर कमलिनी तथा सूर्य को देखकर कमल प्रस्फुटित और पल्लवित होता है, उसी प्रकार माघ मास में साधु-संतों, महर्षियों के सानिध्य से मानव बुद्धि पुष्पित, पल्लवित और प्रफुल्लित होती है। यानी प्राणी को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।

माघ मास महात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय  The Eleventh Chapter of the Mahatmya of the Month of Magh in Hindi 

यमदूत कहने लगा कि हे वैश्य! मनुष्य को सदैव शालिग्राम की शिला में तथा वज्र या कीट (गामति) चक्र में भगवान वासुदेव का पूजन करना चाहिए क्योंकि सब पापों का नाश करने वाले, सब पुण्यों को देने वाले तथा मुक्ति प्रदान करने वाले भगवान विष्णु का इसमें निवास होता है. जो मनुष्य शालिग्राम की शिला या हरिचक्र में पूजन करता है वह अनेक मंत्रों का फल प्राप्त कर लेता है. जो फल देवताओं को निर्गुण ब्रह्म की उपासना में मिलता है वही फल मनुष्य को भगवान शालिग्राम का पूजन करने से यमलोक को नहीं देखने देता. भगवान को लक्ष्मी जी के पास अथवा वैकुंठ में इतना आनंद नहीं आता जितना शालिग्राम की शिला या चक्र में निवास करने में आता है.

स्वर्ण कमल युक्त करोड़ो शिवलिंग के पूजन से इतना फल नहीं मिलता जितना एक दिन शालिग्राम के पूजन से मिलता है. भक्तिपूर्वक शालिग्राम का पूजन करने से विष्णुलोक में वास करके मनुष्य चक्रवर्ती होता है. काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से युक्त होकर भी मनुष्य शालिग्राम का पूजन करने से बैकुंठ में प्रवेश करता है.

जो सदैव शालिग्राम का पूजन करते है वह प्रलयकाल तक स्वर्ग में वास करते हैं. जो दीक्षा, नियम और मंत्रों से चक्र में बलि देता है वह निश्चय करके विष्णुलोक को प्राप्त होता है. जो शालिग्राम के जल से अपने शरीर का अभिषेक करता है वह मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करता है. गंगा, रेवा, गोदावरी सबका जल शालिग्राम में वास करता है. जो मनुष्य शालिग्राम की शिला के सन्मुख अपने पिता का श्राद्ध करता है उसके पितर कई कल्प तक स्वर्ग में वास करते हैं. जो लोग नित्य शालिग्राम की शिला का जल पीते हैं उनके हजारों बार पंचगव्य पीने से क्या प्रयोजन ?

यदि शालिग्राम की शिला का जल पिया जाए तो सहस्त्रो तीर्थ करने से क्या लाभ? जहाँ पर शालिग्राम हैं वह स्थान तीर्थ स्थान के समान ही है, वहाँ पर किए गए सम्पूर्ण दान-होम, करोड़ो गुणा फल को प्राप्त होता है. जो एक बूँद भी शालिग्राम का जल पीता है वह माता के स्तनों का दुग्ध पान नहीं करता अर्थात गर्भाशय में नहीं आता. शालिग्राम शिला में जो कीड़े-मकोड़े एक कोस के अंतर पर मरते हैं वह भी वैकुंठ को प्राप्त होते हैं. जो फल वन में तप करने से प्राप्त होता है वही फल भगवान को सदैव स्मरण करने से प्राप्त होता है. मोहवश अनेक प्रकार के घोर पाप करने वाला मनुष्य भी भगवान को प्रणाम करने से नर्क में नहीं जाता.

संसार में जितने तीर्थ और पुण्य स्थान हैं, भगवान के केवल नाम मात्र के कारण से प्राप्त हो जाते हैं.

माघ मास महात्म्य बारहवां अध्याय Magh month Mahatmya twelfth chapter in Hindi 

यमदूत कहने लगा कि जो कोई प्रसंगवश भी एकादशी के व्रत को करता है वह दुखों को प्राप्त नहीं होता. मास की दोनों एकादशी भगवान पद्मनाभ के दिन हैं. जब तक मनुष्य इन दिनों में व्रत नहीं करता उसके शरीर में पाप बने रहते हैं. हजारों अश्वमेघ, सैकड़ो वाजपेयी यज्ञ, एकादशी व्रत की सोलहवीं कला के बराबर भी नही हैं. एकादशी के दिन व्रत करने से ग्यारह इंद्रियों से किए सब पाप नष्ट हो जाते हैं.

गंगा, गया, काशी, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, यमुना, चन्द्रभागा कोई भी एकादशी के तुल्य नहीं है. इस दिन व्रत करके मनुष्य अनायास ही वैकुंठ लोक को प्राप्त करता है. एकादशी को व्रत और रात्रि जागरण करने से माता-पिता और स्त्री के कुल की दस-दस पीढ़ियाँ उद्धार पाती हैं और वह पीताम्बरधरी होकर भगवान के निकट रहते हैं.

बाल, युवा और वृद्ध सब तथा पापी भी व्रत करने से नर्क में नहीं जाते. यमदूत कहता है कि हे वैश्य! मैं सूक्ष्म में तुमसे नरक से बचने का धर्म कहता हूँ. मन, कर्म और वचन से प्राणिमात्र का द्रोह न करना, इंद्रियों को वश में रखना, दान देना, भगवान की सेवा करना, नियमपूर्वक वर्णाश्रम धर्म का पालन करना,

इन कर्मों के करने से मनुष्य नरक से बचा रहता है. स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से मनुष्य गरीब भी हो तो भी जूता, छतरी, अन्न, धन, जल कुछ न कुछ दान देता रहे. दान देने वाला मनुष्य कभी यम की यातना को नही भोगता तथा दीर्घायु और धनी होता है. बहुत कहने से ही क्या अधर्म से ही मनुष्य बुरी गति को प्राप्त होता है. मनुष्य सदैव धर्म के कार्यों से ही स्वर्ग प्राप्त कर सकता है इसलिए बाल्यावस्था से ही धर्म के कार्यों का अभ्यास करना चाहिए

माघ मास महात्म्य तेरहवाँ अध्याय The Mahatmya of the Month of Magh, Chapter XIII in Hindi 

विकुंडल कहने लगा कि:-

तुम्हारे वचनों से मेरा चित्त अति प्रसन्न हुआ है क्योंकि सज्जनों के वचन सदैव गंगाजल के सदृश पापों का नाश करने वाले होते हैं. उपकार करना तथा मीठा बोलना सज्जनों का स्वभाव ही होता है. जैसे अमृत मंडल चंद्रमा को भी ठंडा कर देता है. अब कृपा करके यह भी बतलाइए कि किस प्रकार मेरे भाई का नरक से उद्धार हो सकता है? तब दूत कुछ देर ज्ञान दृष्टि से विचार कर मित्रता रूपी रस्से से बंधा हुआ बोला कि हे वैश्य! यदि तुम अपने भाई के लिए स्वर्ग की कामना करते हो तो जल्दी ही अपने आठ जन्म के पुण्य फल को उसके निमित्त अर्पण कर दो तब विकुंडल ने कहा कि हे दूत! वह पुण्य क्या है और मैने कौन से जन्म में और कैसे किया है, सो सब बतलाओ फिर मैं अपना पुण्य अपने भाई को दे दूंगा.

दूत कहने लगा कि हे वैश्य! सुनो, मैं तुम्हारे पुण्य की सब कथा कहता हूँ. पूर्व समय में मधुवन में शालकी नाम का ऋषि था. वह बड़ा तपेश्वरी, ब्रह्मा के समान तेज वाला था. नवग्रह की तरह उसकी स्त्री रेवती के नौ पुत्र थे. जिनके नाम ध्रुव, शशि, बुध, तार, ज्योतिमान थे. इन पांचों ने गृहस्थाश्रम धारण किया तथा निर्मोह, जितमाय, ध्याननिष्ठ और गुणातग ये चारों सन्यास ग्रहण कर वन में रहने लगे. ये शिखा सूत्र से रहित पत्थर और सोने को समान समझते थे.

जो कोई अच्छा या बुरा उनको अन्न देता वही खा लेते और कोई कैसा ही कपड़ा दे देता उसको ही पहन लेते. सदैव ब्रह्म के ही ध्यान में लगे रहते. इन चारों ने व्रत, शीत, निद्रा और आहार सबको जीत लिया. बस चर-अचर को विष्णु रूप समझते हुए मौन धारण करके संसार में विचरते थे. ये चारो महात्मा तुम्हारे घर आये जब तुमने मध्यान्ह के समय भूखे-प्यासे इनको आंगन में देखा तो तुमने गदगद कंठ से आँखों में आँसू भरकर इनको नमस्कार करके इनका बड़ा आदर-सत्कार किया. इनके चरणों को धोकर बड़े प्रेम से तुम इनसे कहने लगे कि आज मेरे अहोभाग्य हैं.

आज मेरा जन्म सफल हुआ, मुझ पर भगवान प्रसन्न हुए, मैं सनाथ हुआ. मेरे माता, पिता, पत्नी, पुत्र, गौ आदि सभी धन्य हैं जो आज मैंने हरि के सदृश आपके दर्शन किए. सो हे वैश्य! इस प्रकार तुमने श्रद्धा से उनका पूजन किया और चरण धोकर जल को मस्तक से लगाया फिर विधिपूर्वक इनका पूजन करके तुमने इन सन्यासियों को भोजन कराया. इन सन्यासियों ने भोजन करके रात को तुम्हारे घर में विश्राम किया और ब्रह्मा के ध्यान में लीन हो गये. इन सन्यासियों के सत्कार से जो पुण्य तुमको मिला सो मैं भी कहने में असमर्थ हूँ क्योंकि सब भूतों में प्राणी श्रेष्ठ है.

प्राणियों में बुद्धि वाले, बुद्धि वालों में मनुष्य, मनुष्यों में ब्राह्मण, विद्वानों में पुण्यात्मा और पुण्यात्मों में ब्रह्मज्ञानी सर्वश्रेष्ठ हैं. ऎसी ही संगति से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं. यह पुण्य तुमने अपने पहले आठवें जन्म में किया था सो यदि तुम अपने भाई को नरक से मुक्त कराना चाहते हो तो यह पुण्य दे दो. सो दूत के ऎसे वाक्य सुनकर उसने प्रसन्नचित्त से अपना पुण्य अपने भाई कुंडल को दे दिया और वह नरक से मुक्त हो गया और दोनो भाई देवताओं से पूजित किए गए तब दूत अपने स्थान को चला गया.

इस प्रकार वैश्य के पुत्र विकुंडल ने अपना पुण्य देकर अपने भाई को नरक की यातना से छुड़वाया. सो हे राजन! जो कोई इस इतिहास को पढ़ता या सुनता है वह हजार गोदान का फल प्राप्त करता है

माघमास महात्म्य चौदहवां अध्याय Maghmas Mahatmya Chapter Fourteen in Hindi 

कार्तवीर्य जी बोले कि हे विप्र श्रेष्ठ! किस प्रकार एक वैश्य माघ स्नान के पुण्य से पापों से मुक्त होकर दूसरे के साथ स्वर्ग को गया सो मुझसे कहिए तब दत्तात्रेय जी कहने लगे कि जल स्वभाव से ही उज्जवल, निर्मल, शुद्ध, मलनाशक और पापों को धोने वाला है. जल सब प्राणियों का पोषण करने वाला है, ऎसा वेदों ने कहा है. मकर के सूर्य माघ मास में गौ के पैर डूबने योग्य जल से भी स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त होता है.

यदि सारा मास स्नान करने से अशक्त हो तो तीन दिन ही स्नान करने से पापों का नाश होता है. जो व्यक्ति थोड़ा ही दान करे वह भी धनी और दीर्घायु होता है. पांच दिन स्नान करने से चंद्रमा के सदृश शोभायमान होता है इसलिए अपना शुभ चाहने वालों को माघ से बाहर स्नान करना चाहिए।

अब माघ में स्नान करने वालों के नियम कहता हूँ. अधिक भोजन का उपयोग नहीं करना चाहिए, भूमि पर सोना चाहिए, भगवान की त्रिकाल पूजा करनी चाहिए. ईंधन, वस्त्र, कम्बल, जूता, कुंकुम, घृत, तेल, कपास, रुई, वस्त्र तथा अन्न का दान करना चाहिए. दूसरे की अग्नि न तपे, ब्राह्मणों को भोजन कराए और उनको दक्षिणा दे तथा एकादशी के नियम से माघ स्नान का उद्यापन करे.

भगवान से प्रार्थना करें कि हे देव! इन स्नान का मुझको यथोक्त फल दीजिए. मौन रहकर मंत्र का उच्चारण करे फिर भगवान का स्मरण करें. जो मनुष्य श्री गंगाजी में माघ में स्नान करते हैं वे चार हजार युग तक स्वर्ग से नहीं गिरते. जो कोई माघ मास में गंगा और यमुना का स्नान करता है वह प्रतिदिन हजार कपिला गौ के दान का फल पाता है।

माघ मास महात्म्य पंद्रहवाँ अध्याय Magh month Mahatmya fifteenth chapter in Hindi 

दत्तात्रेयजी कहने लगे कि हे राजन! प्रजापति ने पापों के नाश के लिए प्रयाग तीर्थ की रचना की. सफेद (गंगाजी) और काली(यमुनाजी) के जल की धारा में स्नान का माहात्म्य भली प्रकार सुनो. जो इस संगम में माघ मास में स्नान करता है वह गर्भ योनि में नहीं आता. भगवान विष्णु की दुर्गम माया माघ में प्रयाग तीर्थ पर सब नष्ट कर देती है.

माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से मनुष्य अच्छे भोगों को भोगकर ब्रह्म को प्राप्त होता है. माघ मास तथा मकर के सूर्य में जो प्रयाग में स्नान करता है उसके पुण्यों की गिनती चित्रगुप्त भी नहीं कर सकता. सौ वर्ष तक निराहार रहकर जो पुण्य प्राप्त होता है वही फल माघ मास में तीन दिन प्रयाग में स्नान करने से होता है, जो फल सौ वर्ष तक योगाभ्यास करने से मिलता है.

जैसे सर्प पुरानी केंचुली को छोड़कर नया रुप ग्रहण कर लेता है वैसे ही माघ मास में स्नान करने से मनुष्य पापों को छोड़कर स्वर्ग को प्राप्त होता है परंतु गंगा-यमुना के संगम में स्नान करने से हजारों गुना फल मिलता है. हे राजन! जिसको अमृत कहते हैं वह यह त्रिवेणी ही है. ब्रह्मा, शिव, रुद्र, आदित्य, मरुतगण, गंधर्व, लोकपाल, यक्ष, गुह्यक, किन्नर, अणिमादि गुणों से सिद्ध, तत्वज्ञानी, ब्रह्माणी, पार्वती, लक्ष्मी, शची, नैना, दिति, अदिति, सम्पूर्ण देव पत्नियाँ तथा नागों की स्त्रियों, घृताचीं, मेनका, उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा, अप्सरा गण और सब पितर, मनुष्य गण कलियुग में गुप्त और सतयुगादि में प्रत्यक्ष सब देवता माघ मास में स्नान करने के लिए आते हैं.

इन दिनों माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से जो फल मिलता है वह ईश्वर ही कह सकता है, मनुष्य में कहने की शक्ति नहीं है. हजारों अश्वमेघ यज्ञ करने से भी यह फल प्राप्त नहीं होता. पूर्व समय में कांचन मालिनी ने इस स्नान का फल राक्षस को दिया था और इससे वह पापी मुक्त हो गया था.

माघ मास का सोलहवाँ अध्याय Sixteenth chapter of Magh month in Hindi 

कार्तवीर्य कहने लगा कि हे भगवान! वह राक्षस कौन था? और कांचन मालिनी कौन थी? उसने अपना धर्म कैसे दिया और उनका साथ कैसे हुआ. हे ऋषि! अत्रि ऋषि की संतानों के सूर्य! यह कथा सुनाकर मेरा कौतूहल दूर कीजिए तब दत्तात्रेयजी कहने लगे कि राजन इस पुरातन विचित्र इतिहास को सुनो कांचन मालिनी नाम की एक सुंदर अप्सरा थी जो माघ मास में प्रयाग में स्नान करके कैलाश पर जा रही थी तब उसको मार्ग में जाते हुए हिमालय के कुंज से एक घीर राक्षस ने देखा.

उस सोने जैसे तेज वाली, सुंदर कटि वाली, बड़े-बड़े नेत्रों वाली, चंद्रमुखी, सुंदर केश और पीनपयोधर वाली सुंदर अप्सरा को देखकर उस राक्षस ने कहा कि हे सुंदरी, कमलनयनी तुम कौन हो और कहाँ से आ रही हो? तुम्हारे वस्त्र और वेणी भीगी हुई क्यों है? तुम आकाश मार्ग से कहाँ जाती हो और किस पुण्य के प्रताप से तुम्हारा शरीर ऎसा तेजस्वी और रूप ऎसा मनोहर है. तुम्हारे गीले वस्त्र से मेरे मस्तक पर गिरे हुए एक बूँद जल से मेरे क्रूर मन को एकदम शांति प्राप्त हो गई, इसका क्या कारण है ? तुम बड़ी शीलवती प्रतीत होती हो, इसका कारण मुझसे कहिए.

अप्सरा ने कहा कि हे राक्षस! सुनो मैं काम रूपिणी अप्सरा हूँ. मैं प्रयाग में संगम में स्नान करके आ रही हूँ, इसी से मेरे वस्त्र भीगे हैं. अब कैलाश पर जा रही हूँ जहाँ पर श्री शिव निवास करते हैं. त्रिवेणी के जल से मेरी सब क्रूरता दूर हो गई. जिसके पुण्य के प्रभाव से मैं इतनी सुंदर और पार्वतीजी की प्रिय सखी हुई. जो आश्चर्य देने वाला उदाहरण मुझसे ब्रह्माजी ने कहा था सो सुनो

मैं कलिंग देश के राजा की वेश्या थी, रुप लावण्य और सुंदरता में अपूर्व थी. मेरी सुंदरता पर सारा नगर मोहित था और मैंने अनेकों प्रकार के भोग भोगे, अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषणों की घर में कोई कमी नहीं थी. कई कामी पुरुष आपस में स्पर्धा ही से मृत्यु को प्राप्त हो गए. इस तरह उस नगर में बड़ी सुंदरता से यौवन व्यतीत हुआ और मैं वृद्धावस्था को प्राप्त हो गई तब मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने अपनी सारी आयु पापों में ही व्यतीत कर दी. धर्म का कोई कार्य दान, तप, यज्ञ आदि नहीं किया, शिव या दुर्गाजी की आराधना नहीं की, न कभी भगवान विष्णु का पूजन किया.

इस प्रकार अशांत चित्त से मैंने एक ब्राह्मण की शरण ली जो वेदों का ज्ञाता और ब्रह्मनिष्ठ था. मैंने उनसे पूछा कि मेरा निस्तार किस प्रकार हो सकता है. महाराज, साधु-सज्जन अच्छे और बुरे सभी पर दया करते हैं. इसलिए मुझ दीन पर भी कृपा करके मुझ कीचड़ में डूबी हुई को पकड़कर उबारिए. क्षीर सागर क्या हंस को ही दूध देता है बत्तख को नहीं देता तब वह ब्राह्मण राजा का पुरोहित इन सब बातों को सुनकर मुझ पर दया करके कहने लगा कि तू ब्रह्मा के क्षेत्र (प्रयाग) में जाकर माघ मास में त्रिवेणी संगम में स्नान कर परंतु मन में अशुभ क्रिया का विचार नहीं करना.

पापों के नाश के लिए महर्षियों ने तीर्थ स्थान से अधिक और कोई प्रायश्चित नहीं बतलाया. प्रयाग में स्नान करने से तू अवश्य पवित्र होकर स्वर्ग को जाएगी. हे भामिनी! पुराने समय में गौतम ऋषि की स्त्री को देखकर इंद्र ने काम के वशीभूत होकर कपट वेश में उससे भोग किया था

इसलिए ऋषि द्वारा श्राप दिया गया और उसका शरीर अत्यंत लज्जायुक्त हजारों भगों वाला हो गया तब इंद्र नीचा मुंह करके अपने पाप कर्म की बुराई कराने लगा. मेरु पर्वत के शिखर पर स्वच्छ जल वाले सरोवर पर एक स्वर्ण कमल से भरे हुए कोटर में घुस गया और अपने पाप को धिक्कारता हुआ काम देव की बुराई करने लगा कि यह सब पापों का मूल है. इसके ही वशीभूत होकर मनुष्य नरक में जाते हैं और अपने धर्म, कीर्त्ति, यश और धैर्य का नाश करते हैं.

इंद्र ऎसा सोच रहा था सो इंद्र के बिना सारा देवलोक शोभाहीन हो गया तब देवता, गंधर्व, किन्नर, लोकपाल इंद्राणि के सहित बृहस्पतिजी से जाकर पूछने लगे कि महाराज इंद्र के न रहने से स्वर्ग ऎसा शोभाहीन हो गया है जैसे सत पुत्र के बिना श्रेष्ठ कुल. इसलिए स्वर्ग की शोभा के लिए कोई क्रिया सोचिए. इस विषय में देर नहीं लगानी चाहिए तब बृहस्पति जी कहने लगे कि इंद्र ने बिना सोचे-विचारे जो कर्म किया है उसका फल भोग रहा है सो वह कहाँ है मैं यह सब जानता हूँ. फिर गुरुजी ने सबको साथ लेकर स्वर्ण कमलों से युक्त बड़े सरोवर में इंद्र को देखा जिसका मुख मलीन और आँखें बंद थी.

तब इंद्र ने बृहस्पतिजी के चरणों को पकड़कर कहा कि इस पाप से उद्धार करके आप मेरी रक्षा कीजिए तब बृहस्पतिजी ने इंद्र से कहा कि प्रयाग में स्नान करने से ही तुम पाप मुक्त हो जाओगे. तब इंद्र सहित सबने ही प्रयाग में जाकर संगम में स्नान किया और त्रिवेणी स्नान से इंद्र पापमुक्त हो गए तब बृहस्पतिजी ने इंद्र को वरदान दिया कि तुम्हारे शरीर में जितने भग हैं सब नेत्र हो जाएँ. तब इंद्र ब्राह्मण के वर से हजार नेत्रों से ऎसा सुशोभित हुआ जैसे मानसरोवर में कमल शोभायमान होता है.

माघ मास महात्म्य सत्रहवां अध्याय The Mahatmya of the Month of Magh, Chapter Seventeen in Hindi 

अप्सरा कहने लगी कि हे रा़क्षस! वह ब्राह्मण कहने लगा कि इंद्र इस प्रकार अपनी अमरावती पुरी को गया. सो हे कल्याणी! तुम भी देवताओं से सेवा किए जाने वाले प्रयाग में माघ मास में स्नान करने से निष्पाप होकर स्वर्ग में जाओगी, सो मैंने उस ब्राह्मण के यह वचन सुनकर उसके पैरों में पड़कर प्रणाम किया और घर में आकर सब भाई-बांधव, नौकर-चाकर धनादिक त्यागकर शरीर को नष्ट होने वाली वस्तु समझकर घर से निकली और माघ में गंगा-यमुना के संगम पर जाकर स्नान किया.

सो हे निशाचर! तीन दिन के स्नान से मेरे सब पाप नष्ट हो गए और सत्ताइस दिन के पुण्य से मैं देवता हो गई और पार्वतीजी की सखी होकर सुख से निवास करती हूँ. इसलिए मैं प्रयाग के माहात्म्य को याद करके सब देवताओं के सहित माघ में प्रयाग स्नान करती हूँ. सो मैंने अपना यह सब वृत्तांत तुमसे कहा. तुम भी इस योनि में पड़ने और कुरुप होने का सब कारण कहो. तुम्हारी दाढ़ी और मूँछे बहुत बड़ी-बड़ी हो गई हैं और पार्वती की गुफा में वास करते हो

निशाचर कहने लगा कि हे भद्रे! सज्जनों से गुप्त बात कहने में भी कोई हानि नहीं होती. मुझको अब कोई संशय नहीं रहा कि मेरा उद्धार तुमसे ही होगा सो मैं अपना सब वृत्तांत तुमसे कहता हूँ. मैं काशी में वेदों का ज्ञाता था और बड़े उच्च कुल के ब्राह्मण के घर में जन्म लिया था. मैंने राजा, पापी, शूद्र तथा वैश्यों से अनेक प्रकार के दान लिए. मैंने दान लेने में चांडाल को भी नहीं छोड़ा. उस जन्म में मैंने कोई भी धर्म नहीं किया. वहीं पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गया. तीर्थ स्थान पर मरने के कारण नर्क में नहीं गया. पहले दो बार गिद्ध योनि में, तीन बार व्याघ्र योनि में, दो बार सर्प योनि में, एक बार उल्लू की योनि में और अब दसवीं बार राक्षस हुआ हूँ और सैकड़ो वर्षों से इसी योनि में हूँ.

इस स्थान को तीन योजन तक मैंने जंतुहीन कर दिया है. बिना अपराध के बहुत से प्राणियों को मैंने नष्ट किया. इस कारण मेरा मन अत्यंत दुखी है. तुम्हारे दर्शन से चित्त में कुछ शांति अवश्य आई है क्योंकि सज्जनों का संग तुरंत ही सुखदायी होता है. मैंने अपने दुख के कारण आपसे कहे और सज्जन लोग सदैव दूसरे के दुखों से दुखी होते हैं. अब यह बताओ कि इस दुख रुपी समुद्र को कैसे पार कर सकता हूँ. क्या क्षीर सागर हंस को ही दूध देता है, बगुले को नहीं देता ?

दत्तात्रेयजी कहने लगे कि इस प्रकार उसके वचन सुनकर कांचन मालिनी कहने लगी कि हे राक्षस! मैं अवश्य तुम्हारा कल्याण करुंगी. मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा की है कि तुम्हारी मुक्ति के लिए प्रयत्न करूँगी. मैंने बहुत बार प्रयाग में स्नान किया है. वेद जानने वाले ऋषियों ने दुखी को दान देने की प्रशंसा की है. समुद्र में जल बरसने से क्या लाभ? प्रयाग में स्नान करने का एक बार का फल मैं तुझे देती हूँ. उसी से तुमको स्वर्ग की प्राप्ति होगी. उसके फल का अनुभव मैं कर चुकी हूँ तब उस अप्सरा ने अपने गीले वस्त्र का जल निचोड़कर जल को हाथ में लेकर माघ स्नान के फल को उस राक्षस को अर्पण किया. उसी समय पुण्य प्राप्त वह राक्षसी शरीर को छोड़कर तेजमय सूर्य के सदृश देवता रूप हो गया

आकाश में विमान पर चढ़कर अपनी कांति से चारों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ शोभायमान हुआ और कहने लगा कि ईश्वर ही जानता है तुमने कितना उपकार मुझ पर किया है. अब भी कृपया कुछ शिक्षा दो जिससे मैं कभी पाप न करूँ. अब मैं तुम्हारी आज्ञा पाकर स्वर्ग में जाऊँगा तब कांचन मालिनी ने कहा कि सदैव धर्म की सेवा करो, काम रूपी शत्रु को जीतो, दूसरे के गुण तथा दोषों का वर्णन मत करो. शिव और वासुदेव का पूजन करो, इस देह का मोह मत करो, पत्नी, पुत्र, धनादि की ममता त्यागो, सत्य बोलो, वैराग्य भाव धारण कर योगी बनो. मैंने तुमसे यह धर्म के लक्षण कहे, अब तुम देवता रूप होकर शीघ्र ही स्वर्ग को जाओ

दत्तात्रेयजी कहने लगे कि इस प्रकार गंधर्वों से शोभित वह राक्षस कांचन मालिनी को नमस्कार करके स्वर्ग को गया और देव कन्याओं ने वहाँ आकर कांचन मालिनी पर पुष्पों की वर्षा की और प्रेमपूर्वक कहा कि हे भद्रे! तुमने इस राक्षस का उद्धार किया. इस दुष्ट के डर से कोई भी इस वन में प्रवेश नहीं करता था. अब हम निडर होकर विचरेंगी. इस प्रकार कांचन मालिनी उस राक्षस का उद्धार करके प्रेम पूर्वक देव कन्याओं से क्रीड़ा करते हुए शिव लोक को गई।

माघ मास महात्म्य अठारहवां अध्याय The Eighteenth Chapter of the Mahatmya of the Month of Magh in Hindi 

श्री वशिष्ठ ऋषि कहने लगे कि हे राजन! मैंने दत्तात्रेयजी द्वारा कहा माघ मास माहात्म्य कहा, अब माघ मास के स्नान का फल सुनो. हे परंतप! माघ स्नान सब यज्ञों, व्रतों का और तपों का फल देने वाला है. माघ मास में स्नान करने वाले स्वयं तो स्वर्ग में जाते ही हैं उनके माता और पिता दोनों के कुलों को भी स्वर्ग प्राप्त होता है. जो माघ मास में सूर्योदय के समय नदी आदि में स्नान करता है उसके माता-पिता के सात कुलों की पीढ़ी स्वर्ग को प्राप्त होती है.

माघ मास में स्नान करने वाले दुराचारी और कुकर्मी मनुष्य भी पापों से मुक्त हो जाते हैं और इस मास में हरि का पूजन करने वाले पाप समुदाय से छूटकर भगवान के सदृश शरीर वाले हो जाते हैं. यदि कोई आलस से भी माघ में स्नान करता है उसके भी सब पाप नष्ट हो जाते हैं. जैसे गंधर्व कन्याएँ राजा के श्राप से भयंकर कल को भोगती हुई लोमश ऋषि के वचन से माघ में स्नान करने से पापों से छूट गईं.

यह वार्ता सुनकर राजा दिलीप विनय से पूछने लगा कि गुरुदेव! ये कन्याएँ किसकी थीं, उनको कब और कैसे श्राप मिला, उनके नाम क्या थे, ऋषि के वाक्य से कैसे श्राप मुक्त हुईं और उन्होंने कहाँ पर स्नान किया. आप विस्तारपूर्वक सब कथा कहिए. वशिष्ठजी कहने लगे हे राजा! जैसे अरणि से स्वयं अग्नि उत्पन्न होती है वैसे ही यह कथा धर्म और संतान उत्पन्न करती है. हे राजन! सुख संगीत नामक गंधर्व की कन्या का नाम विमोहिनी था, सुशीला तथा स्वर वेदी की सुम्बरा, चंद्रकांत की सुतारा तथा सुप्रभा की कन्या चंद्रका ये पाँच सब समान आयु वाली तथा चंद्रमा के समान कांति वाली और सुंदर थी. जैसे रात्रि को चंद्रमा शोभायमान होता है वैसे ही पुष्प की कलियों के समान खिली हुई यह अप्सराएँ थी.

ऊँचे पयोधर वाली पद्मनी वैशाख मास की कामिनी यौवन दिखाती हुई नवीन पत्तों वाली लता के सदृश, गोरे रंग, सोने के सदृश चमकती हुई और सोने के अलंकारों से सुशोभित, सुंदर वस्त्र धारण किए हुए अनेक प्रकार के गाने और वीणा अथवा बांसुरी तथा दूसरे बाजे बजाने में प्रवीण और ताल, स्वर तथा नृत्य कला में निपुण थी. इस प्रकार वे कन्याएँ क्रीड़ा करती हुई कुबेर के स्थान में विचरती थी. एक समय कौतुकवश माघ मास में एक वन से दूसरे वन में विचरती हुई मंदिर के पुष्प तोड़कर सरोवर पर गौरी पूजा के लिए गईं.

स्वच्छ जल के सरोवर में स्नान करके वस्त्र धारण कर, मौन हो, बालू मिट्टी की गौरी बनाकर चंदन, कपूर, कुंकुम और सुंदर कमलों से उपचार सहित पूजन करके ये पाँचों कन्याएँ ताल नृत्य करने लगी फिर ऊँचे गांधार स्वर में सुंदर गीत गाने लगी.

जब ये कन्याएँ नाचने और गाने में लीन थी तो उस समय अच्छोद नामक उत्तम तीर्थ में वेदनिधि नाम के मुनि के पुत्र अग्निप ऋषि स्नान को गए. वह युवा ऋषि सुंदर मुख, कमल सदृश नयन, विशाल छाती, सुंदर भुजाओं वाला, दूसरे कामदेव के समान था. शिखा सहित दंड लिए, मृगचर्म ओढ़े, यज्ञोपवीत धारण किए हुए था. उसको देखकर पाँचों कन्याएँ मुग्ध हो गई और उसका रूप व यौवन देखकर कामदेव से पीड़ित हो देखो-देखो ऎसा कहती हुई उस ब्राह्मण के चित्त में कामदेव का डर उत्पन्न करने लगी और आपस में विचार करने लगी कि

यह कौन है. रति रहित होने से कामदेव नहीं और एक होने से अश्विनी कुमार नहीं. यह कोई गंधर्व या किन्नर या कामरुप धारण कर कोई सिद्ध या किसी ऋषि का श्रेष्ठ पुत्र या मनुष्य है. कोई भी हो ब्रह्माजी ने इसको हमारे लिए बनाया है.

जैसे पूर्व कर्म के प्रभाव से सम्पत्ति प्राप्त होती है वैसे ही गौरीजी ने हम कुमारियों के लिए श्रेष्ठ वर दिया है और आपस में यह तुम्हारा वर है या मेरा अथवा सबका ऎसा कहने लगी. जिस समय उस ऋषि पुत्र ने अपनी मध्यान्ह की क्रिया करके ऎसे वचन सुने तो वह सोचने लगा कि यह तो बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई. ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता तथा बड़े योगीश्वर भी स्त्रियों के भ्रमजाल में मोहित हो गए हैं. इनके तीक्ष्ण बाणों से किसका मनरूपी हिरण घायल नही हो सकता. जब तक नीति और बुद्धि रहती है तब तक पाप से भय रहता है. जब तक की गंभीरता रहती है यम विधि का पालन होता है, तब तक मनुष्य स्त्रियों के कामरुपी बाणों से बींधा नहीं जाता.

ये मुझे उन्मत्त और मुग्ध कर रही हैं. किन गुणों से धर्म की रक्षा हो सकती है. स्त्रियों के मांस, रक्त, मल, मूत्र से बने घृणित और अशुद्ध शरीर में कामी लोग ही सुंदरता की कल्पना करके रमन कर सकते हैं. शुद्ध बुद्ध वाले महात्माओं ने स्त्रियों के पास रहना कष्टकारक कहा है सो जब तक यह पास आए घर चले चलना चाहिए. अत: जब तक वह उसके पास आईं वह योग बल के द्वारा अंतर्ध्यान हो गया.

ऋषि पुत्र के ऎसे अद्भुत कर्म देखकर वह चकित होकर डरी हुई चारों ओर देखने लगी और आपस में कहने लगीं कि यह क्या इंद्रजाल था जो देखते-देखते विलीन हो गया और वह विरहा की अग्नि में जलने लगी और कहने लगी कि हे कांत! तुम हमको छोड़कर कहाँ चले गए? क्या तुमको ब्रह्मा ने हमको विरह रूपी अग्नि में जलाने के लिए बनाया था. क्या तुम्हारा चित्त दया रहित है जो हमारा चित्त दुखाकर चले गए. क्या तुमको हमारा विश्वास नहीं, क्या तुम कोई मायावी हो, बिना किसी अपराध के हम लोगों पर क्यों क्रोध करते हो. तुम्हारे बिना हम नहीं जिएंगी. जहाँ पर आप गए हो हमें शीघ्र ले चलो हमारा संताप हरो और हमें दर्शन दो, सज्जन लोग किसी का नाश नहीं देखते।

माघ मास महात्म्य उन्नीसवां अध्याय The Nineteenth Chapter of the Mahatmya of the Month of Magh in Hindi 

वह पाँचों कन्याएँ इस प्रकार विलाप करती हुई बहुत देर प्रतीक्षा करके अपने घर लौटी. जब घर में आईं तो माताओं ने कहा कि इतना विलम्ब तुमने क्यों कर दिया तब कन्याओं ने कहा कि हम किन्नरियों के साथ क्रीड़ा करती हुई सरोवर पर थी और कहने लगी कि आज हम थक गई हैं और जाकर लेट गईं.

वशिष्ठजी कहते हैं कि इस प्रकार आशय को छुपाकर वह विरह की मारी पड़ गईं. उन्होंने घर में आकर किसी प्रकार की क्रीड़ा नहीं की. वह रात्रि उनको एक युग के समान बीती. सूर्यनारायण के उदय होते ही वह अपने-आपको जीवित मानती हुई माताओं की आज्ञा लेकर गौरी-पूजन करने वह कन्याएँ वहाँ पर जाने लगी. उसी समय ब्राह्मण भी स्नान करने के लिए सरोवर पर आया. उसके आने पर कन्याओं ने वाह-वाह किया जैसे कमलिनी प्रात:काल सूर्योदय को देखकर कहती हैं. उसको देखकर उनके नेत्र खुल गए और उस ब्रह्मचारी के पास चली गई.

आपस में एक-दूसरे का हाथ पकड़कर चारों तरफ से उसको घेर लिया और कहने लगी कि मूर्ख उस दिन तू भाग गया था लेकिन आज नहीं भाग सकता. हम लोगों ने तुमको घेर लिया है. ऎसे वचन सुनकर बाहुपाश में बंधे हुए ब्राह्मण ने मुस्कुराकर कहा – तुमने जो कुछ कहा सो ठीक ही है परंतु मैं तो अभी विद्याभ्यास और ब्रह्मचारी हूँ. गुरुकुल में मेरा विद्याभ्यास पूरा नहीं हुआ है. पंडित को चाहिए कि जिस आश्रम में रहे उसके धर्म का पालन करें. इस आश्रम में मैं विवाह करना धर्म नहीं समझता. अपने व्रत का पालन करके और गुरु की आज्ञा पाकर ही विवाह कर सकता हूँ, उससे पहले नहीं कर सकता.

यह बात सुनकर वह कन्याएँ इस प्रकार बोली जैसे वैशाख मास में कोयल बोलती है. वह कहने लगी कि धर्म से अर्थ और अर्थ से काम और काम से धर्म के फल का प्रकाश होता है. ऎसा ही पंडित लोग और शास्त्र कहते हैं. हम काम सहित धर्म की अधिकता से आपके पास आई हैं. सो आप पृथ्वी के सब भोगों को भोगिए. उस ब्राह्मण ने कहा कि तुम्हारा वचन सत्य है किंतु मैं अपने व्रत को समाप्त करके ही विवाह कर सकता हूँ, पहले नहीं कर सकता तब वे कन्याएँ कहने लगी कि तुम मूर्ख हो. अनोखी औषधि, ब्रह्म बुद्धि, रसायन सिद्धि, अच्छे कुल की सुंदर नारियाँ तथा मंत्र जिस समय प्राप्त हों तब ही ग्रहण कर लेना चाहिए. कार्य को टालना अच्छा नहीं होता.

केवल भाग्य वाले पुरुष ही प्रेम से पूर्ण, अच्छे कुल से उत्पन्न स्वयं वर चाहने वाली कन्याओं को प्राप्त होते हैं. कहाँ हम अनोखी नारियाँ, कहाँ आप तपस्वी बालक. यह बेमेल का मेल मिलाने में विधाता की चतुराई ही है. इस कारण आप हम लोगों के साथ गंधर्व विवाह कर लें. इनके ऎसे वचन सुनकर उस धर्मात्मा ब्राह्मण ने कहा कि व्रती रहकर इस समय विवाह नहीं करुंगा. मैं स्वयंवर की इच्छा नहीं करता.

इस प्रकार उसके वचन सुनकर उन्होंने एक-दूसरे का हाथ छोड़कर उसको पकड़ लिया. सुशील और सुरस्वरा ने उसकी भुजाओं को पकड़ लिया. सुतारा ने आलिंगन किया और चंद्रिका ने उसका मुख चूम लिया परंतु फिर उसने क्रोधित होकर उनको श्राप दिया कि तुम डायन की तरह मुझसे चिपटी हो इस कारण पिशाचिनी हो जाओ.

ऎसे श्राप देने पर वह उसको छोड़कर अलग खड़ी हो गई. उन्होंने कहा कि हम निरपराधियों को वृथा क्यों श्राप दिया. तुम्हारी इस धर्मज्ञता पर धिक्कार है. प्रेम करने वाले से बुराई करने वाले का सुख दोनों लोकों में नष्ट हो जाता है इसलिए तुम भी हम लोगों के साथ पिशाच हो जाओ. तब वे आपस के क्रोध से उस सरोवर पर पिशाच-पिशाचिनी हो गए और बस पिशाच-पिशाचिनी कठिन शब्दों से चिल्लाते हुए अपने कर्मों को भोगने लगे.

वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन! इस प्रकार वह पिशाच उस सरोवर के इधर-उधर फिरते रहे. बहुत समय पश्चात मुनियों में श्रेष्ठ लोमश ऋषि पौष शुक्ला चतुर्दशी को उस अच्छोद सरोवर पर स्नान करने के लिए आए. जब क्षुधा से दुखी इन पिशाचों ने उनको देखा तो उनकी हत्या करने के लिए गोल बांधकर उनको चारों तरफ से घेर लिया. वेदनिधि ब्राह्मण भी वहाँ पर आ गए और उन्होंने लोमश ऋषि को साष्टांग प्रणाम किया. वे पिशाच ऋषि के तेज के सामने ठहर न सके और दूर जाकर खड़े हो गए. वेदनिधि हाथ जोड़कर लोमश ऋषि से कहने लगे कि भाग्य से ही ऋषियों के दर्शन होते हैं. फिर उन्होंने गंधर्व कन्या और अपने पुत्र का परिचय देकर सब वृत्तांत सुनाया और कहा कि हे मुनिवर! यह सब ही श्राप मोहित होकर आपके सम्मुख खड़े हैं.

आज इन बालकों का निस्तार होगा जैसे सूर्योदय से अंधेरे का नाश हो जाता है. वशिष्ठजी कहने लगे कि पुत्र के दुख से दुखी हुए. वेदनिधि ब्राह्मण के ऎसे वचन सुनकर लोमश ऋषि के नेत्रों में जल भर आया और वेदनिधि से कहने लगे कि मेरे प्रसाद से बालकों को शीघ्र समृति पैदा हो, मैं उनका धर्म कहता हूँ जिससे इसका आपस का ज्ञान विलीन हो जाएगा.

माघ मास महात्म्य बीसवां अध्याय magh maas mahatmya 20th chapter in Hindi 

वेदनिधि कहने लगे कि हे महर्षि! धर्म को जल्दी ही कहिए क्योंकि श्राप की अग्नि बड़ी दुखकारक होती है. लोमश ऋषि कहने लगे कि यह सब मेरे साथ नियमपूर्वक माघ स्नान करें. अंत में यह श्राप से छूट जाएंगे. मेरा यह निश्चय है शुभ तीर्थ में माघ स्नान करने से शाप का फल नष्ट हो जाता है. सात जन्मों के पाप तथा इस जन्म के पाप माघ में तीर्थ स्थान पर स्नान करने से नष्ट हो जाते हैं. इस अच्छोद में स्नान करने से अवश्य ही मोक्ष की प्राप्ति होती है. राजसूय और अश्वमेघ यज्ञ से भी अधिक फल माघ मास स्नान से होता है. अतएव सम्पूर्ण पापों का सहज में ही नाश करने वाला माघ स्नान क्यों न किया जाए।

माघ मास महात्म्य इक्कीसवां अध्याय The Mahatmya of the Month of Magh, Chapter Twenty-one in Hindi 

लोमश जी कहने लगे कि पूर्व काल में अवंती देश में वीरसैन नाम का राजा था. उसने नर्मदा के किनारे राजसूय यज्ञ किया और अश्वमेघ यज्ञ भी किए जिनके खम्भे सोने के बनाए गए. ब्राह्मणों को अन्न का बहुत-सा दान किया और बहुत-सी गाय, सुंदर वस्त्र और सोने के आभूषण दान में दिए. वह देवताओं का भक्त और दान करने वाला था. भद्रक नाम का एक ब्राह्मण जो अत्यंत मूर्ख, कुलहीन, कृषि कार्य करने वाला, दुराचारी तथा अधर्मी था, वह भाई-बंधुओं का त्यागा हुआ इधर-उधर घूमता हुआ देव यात्रियों के साथ प्रयाग में आया और माघ में उनके साथ तीन दिन तक स्नान किया. वह तीन दिन में ही निष्पाप हो गया फिर वह अपने घर चला गया।

वह ब्राह्मण और राजा दोनों एक ही दिन मृत्यु को प्राप्त हुए. मैंने इन दोनों को बराबर इंद्रलोक में देखा. तेज, रूप, बल, स्त्री, वस्त्र और आभूषणों में दोनों समान थे. ऎसा देखकर उसके माहात्म्य को क्या कहा जाए. राजसूय यज्ञ करने वाला स्वर्ग का सुख भोगकर फिर भी जन्म लेता है परंतु संगम में स्नान करने वाला जन्म-मरण से रहित हो जाता है. गंगा और यमुना के संगम की हवा के स्पर्श से ही बहुत-से दुख नष्ट हो जाते हैं. अधिक क्या कहें और किसी भी तीर्थ में किए गए पाप माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से नष्ट हो जाते हैं. मैं पिशाच मोचन नाम का एक पुराना इतिहास सुनाता हूँ. इस इतिहास को यह कन्याएँ और तुम्हारा पुत्र भी सुने, उससे इनको स्मृति प्राप्त होगी।

पुराने समय में देवद्युति नाम का बड़ा गंभीर और वेदों का पारंगत एक वैष्णव ब्राह्मण था. उसने पिशाच को निर्मुक्त किया था. वेदनिधि कहने लगे कि वह कहाँ का रहने वाला, किसका पुत्र, किस पिशाच को उसने निर्मुक्त किया. आप विस्तारपूर्वक यह सब कथा सुनाइए. लोमश ऋषि ने कहा – किल्पज्ञ से निकली हुई सुंदर सरस्वती के किनारे पर उसका स्थान था. जंगल के बीच में पुण्य जल वाली सरस्वती बहती थी. वन में अनेक प्रकार के पशु भी विचरते थे. उस ब्राह्मण के श्राप के भय से पवन भी बहुत सुंदर चलती थी और वन चैत्र रथ के समान था. उस जगह धर्मात्मा देवद्युति रहता था. उसके पिता का नाम सुमित्र था और वह लक्ष्मी के वरदान से उत्पन्न हुआ था।

वह सदैव आत्मा को स्थिर रखता, गर्मी में अपने नेत्र सूर्य की तरफ रखता, वर्षा में खुली जगह पर तपस्या करता. हेमंत ऋतु में सारस्वत सरोवर में बैठता और त्रिकाल संध्या करता. जितेन्द्रिय और सत्यवादी भी था. अपने आप गिरे हुए फल और पत्तियों का भोजन करता था. उसका शरीर सूखकर हड्डियाँ मात्र रह गई थीं. इस प्रकार उसको तप करते हुए वहाँ पर हजार वर्ष बीत गए. तप के प्रभाव से उसका शरीर अग्नि के समान प्रज्ज्वलित था.

विष्णु की प्रसन्नता से ही वह सब कर्म करता. दधीचि ऋषि के वरदान से ही वह श्रेष्ठ वैष्णव हुआ था. एक समय उस ब्राह्मण ने वैशाख महीने की एकादशी को हरि की पूजा कर उनकी सुंदर स्तुति तथा विनती करी. उसकी विनती सुनकर भगवान उसी समय गरुड़ पर चढ़कर उसके पास आए. चतुर्भुज विशाल नेत्र, मेघ जैसा स्वरुप. भगवान को स्पष्ट देखकर प्रसन्नता के मारे उसकी आँखों में आँसू भर आए और कृतकृत्य होकर उसने भगवान को प्रणाम किया।

उसने अपने शरीर को भी याद न रखा और भगवान के ध्यान में लीन हो गया तब भगवान ने कहा कि हे देवद्युति मैं जानता हूँ कि तुम मेरे परम भक्त हो. मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो. इस प्रकार भगवान के वचन सुनकर प्रेम के मारे लड़खड़ाती हुई वाणी में कहने लगा कि हे देवाधिदेव! अपनी माया से शरीर धारण करने वाले आपका दर्शन देवताओं को भी दुर्लभ है. अब आपका दर्शन भी हो गया मुझको और क्या चाहिए. मैं सदैव आपकी भक्ति में लगा रहूँ. भगवान उसके वचन सुनकर कहने लगे कि ऎसा ही होगा. तुम्हारे तप में कोई बाधा नहीं पड़ेगी. जो मनुष्य तुम्हारे कहे गए स्तोत्र को पढ़ेगा उसकी मुझमें अचल भक्ति होगी, उसके धर्म कार्य सांगोपांग होगें और उसकी ज्ञान में परम निष्ठा होगी।

माघ मास महात्म्य बाइसवां अध्याय The Mahatmya of the Month of Magh Chapter Twenty-two in Hindi 

इतना कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए तब देवनिधि कहने लगे हे महर्षि! जैसे गंगाजी में स्नान करने से मनुष्य पवित्र हो जाता है वैसे ही भगवान की इस कथा को सुनकर मैं पवित्र हो गया. कृपा करके उस स्तोत्र को कहिए जिससे उस ब्राह्मण ने भगवान को प्रसन्न किया. लोमशजी कहते हैं कि उस स्तोत्र को पहले गरुड़जी ने पढ़ा उनसे मैंने सुना. हे विप्र! यह स्तोत्र अध्यात्म विद्या का सार, पापों का नाश करने वाला है. वासुदेव, सर्वव्यापी, चक्रधारी, सज्जनों के प्रिय जगत के स्वामी श्री कृष्ण को नमस्कार है. जब स्तुति करने वाला जिसकी स्तुति की जाए तथा सभी जगत विष्णुमय है तो किसकी स्तुति की जाए.

जिस भगवान के श्वांस वेद हैं फिर कौन सी स्तुति उनकी प्रसन्नता के लिए की जा सकती है. जिसको वेद नहीं जान सकते, न वाणी न मन जान सकता है उसकी स्तुति में अज्ञानी क्या कर सकता है. सारा चर-अचर संसार जिसकी माया से चक्र की तरह घूम रहा है. इसी से हे प्रभु! आप चक्रधारी कहलाते हो. ब्रह्मा, विष्णु आप ही हो, सारे संसार को उत्पन्न करने वाले ब्रह्मा को भी आप उत्पन्न करने वाले हो,

जब जीव शरीर को धारण करता है तब उसमें ज्ञान उत्पन्न होता है. तुम सब सुखों के दाता हो इसमें कोई संदेह नहीं है. आपसे सम्पूर्ण सुखों को देने वाली बुद्धि उत्पन्न होती है. आप ही पाँच कर्मेन्द्रिय, पंचमहाभूत तथा मन के विविध भाव हो. ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र की कल्पना से आप संसार की कल्पना इसी प्रकार करते हो जैसे पिता पुत्री की.

कवियों में जो रूप शोभा देता है उन निर्गुण विष्णु भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ. जिसमें ज्ञान रखने से श्रुतियों में कहे हुए कर्मों को लोग करते हैं, उस परम ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ. मैं उस सत रूप हरि को, जिसको योगी लोग सब प्राणियों में आत्मरूप में देखते हैं, उपासना करते हैं, जिसको अद्वैत कहते हुए गाते हैं और यज्ञ करते हैं उस माधव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ. मनुष्यों को माया तथा मोह में पैदा हुए विचित्र आभास, अहंकार तथा ममता को जानकर खो देते हैं उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ.

संसार में मनुष्यों के मोह रूपी वायु से सदा भभकने वाली ज्वाला आपके चरण-कमल की छाया पहुंचने से नहीं जलाती, जिसके स्मरण मात्र से मोह अज्ञान, रोग, दुख दूर हो जाते हैं उस अनंत रूप को नमस्कार करता हूँ. जिसमें मिल जाने पर और किसी दूसरे की इच्छा नहीं रहती, जिसको जानकर अद्वैतवादी आत्मा को देखते हैं, यदि विष्णु शब्द का अर्थ और उसके विषय का ज्ञान एक ही होता तो इस सत्य से हे माधव! इस संसार की माया में फंसकर तेरे ही ध्यान में रत रहता.

यदि वेदांत दर्शन में भगवान सारे संसार में व्याप्त हैं तो इसी सत्य से भगवान में भरी निर्विघ्न भक्ति हो जो बीज नहीं है तो भी बिना बीज के स्वयं विद्यमान है सो वह विष्णु भगवान रूपी रंग से हमारे बीज के टुकड़े-टुकड़े को जो सृष्टि, स्थिति तथा लय के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन रूप धारण करते हैं और कार्य में सत, रज और तम इन तिनों गुणों में विद्यमान हैं वह भगवान मुझ पर प्रसन्न हों, जो प्राणियों के हृदय रूपी मंदिर में निर्मल देव वास करते हैं

वह भगवान मुझ पर प्रसन्न हों. जो अविद्यापूर्ण संसार का त्याग करता है, जगन्मय आप हो, आपका बनाया हुआ विश्व आनंद करता है, आपके त्याग करने पर अपवित्र हो जाता है उसका साथ करने पर भी तुम बिना साथ के बने रहते हो, विकाररहित जिनके चार्वाक पंचभूत योग से पैदा हुआ चैतन्य मानते हुए उपासना करते हैं.

जैन लोग आपको शरीर का परिणाम मानते हैं और सांख्यवादी तुम्हीं को प्रकृति से परे पुरुष मानकर ध्यान करते हैं. जन्म इत्यादि से रहित, चैतन्य रूप सदा आनंद स्वरूप उपनिषद जिसकी महिमा गाते हैं. आकाशादि पंच महाभूत देह, मन, बुद्धि इन्द्रियाँ सब कुछ तुम्हीं हो, तुमसे अलग और कुछ नहीं. तुम ही सब प्राणियों को उत्पन्न करने वाले हो और मुझको शरण देने वाले हो. तुम अग्नि, रवि, इंद्र, होम, मंत्र, क्रिया तथा फल सब तुम्हीं हो, कर्म के फल देने वाले वैकुंठ में तुम्हारे सिवाय कोई नहीं है. मैं तुम्हारी शरण में हूँ. सब प्राणियों के हेतु तथा उनको शरण देने वाले तुम ही हो. जैसे युवा पुरुष की युवती में और युवती की युवा में प्रीति होती है वैसी मेरी प्रीति तुम में हो.

जो पापी भी आपको प्रणाम करता है उसको यमदूत ऎसे नहीं देखते हैं जैसे उल्लू सूर्य को. प्रत्येक पाप मनुष्य को उस समय तक ही सुख देते हैं जब तक वह आपके चरण-कमलों का सहारा नहीं लेता. जिसको गुण, जाति तथा धर्म को स्पर्श नहीं कर सकते तथा गतियाँ भी स्पर्श नहीं करती, जो इन्द्रियों के वशीभूत नहीं है, जिनका बड़े-बड़े मुनि लोग साक्षात नहीं कर सकते, उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ. जितने ज्ञान रूपी सुंदर गुण हैं, जिन्होंने सुख स्वरूप मोक्ष रूपी लक्ष्मी का आलिंगन किया, जिन्होंने आत्मस्वरूप सुख भोगा है और जिन्होंने ध्यान रूप से मृत्यु को वश में कर लिया है, ऎसे मुनियों से सेवित भगवान को नमस्कार है.

जो जन्मादि से अलग हैं, जिनको काम, क्रोध आदि दोष दुख नहीं देते उन वासुदेव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ. जिनके ज्ञान की गति से अविद्या रूपी मल शुद्ध हो जाता है, जिनके ज्ञानरूपी शस्त्र से संसार रूपी शत्रु का नाश हो जाता है, उन दुखों के नाश करने वाले को मैं नमस्कार करता हूँ. जिस प्रकार सब स्थावर जंगम संसार को उत्पन्न करते हैं, इसी सत्य से भगवान मुझको दर्शन दें.

इस प्रकार उसकी सच्ची भक्ति देखकर भगवान ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को दर्शन दिए और ब्राह्मण की स्तुति से प्रसन्न होकर तथा उसको वरदान देकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए और वह ब्राह्मण कृतकृत्य होकर भगवान में लीन हो गया और शिष्यों के साथ स्तोत्र पढ़ता हुआ तपोवन में रहने लगा. जो कोई स्तोत्र को पढ़ता अथवा सुनता है उसकी बुद्धि पाप में नहीं लगती और न ही बुरा फल देखता है. इसके कीर्तन से मनुष्यों की बुद्धि, मन तथा इन्द्रियाँ स्वस्थ होती हैं. जो भक्तिपूर्वक इसके अर्थ को विचार कर इसका जप करता है वह वैष्णव पद को प्राप्त होता है.

इसके सदैव पढ़ने से मनवांछित कार्य सिद्ध हो जाते हैं. मनुष्य सुपुत्र पाता है तथा धन, पराक्रम और चिरायु प्राप्त करता है. इसके पाठ से बुद्धि, धन, यश, कीर्त्ति, ज्ञान तथा धर्म बढ़ते हैं. दुष्ट ग्रहों की शांति होती है. यह व्याधियों व अनिष्टों को दूर करता है, दुर्गति से तारता है. इसके पढ़ने से सिंह, व्याघ्र, चोर, भूत, देव, पिशाच और राक्षस का भय नहीं रहता. जो भगवान का पूजन करके इस स्तोत्र को पढ़ता है, वह पापों से ऎसे ही अलग रहता है जैसे जल पंक से कमल.

जो इस स्तोत्र को एक काल, दो काल या तीन काल पढ़ता है वह अक्षय फल प्राप्त करता है. जो मनुष्य प्रात:काल इस स्तोत्र का पाठ करता है वह इस लोक और परलोक में अक्षय सुख पाता है.

वेदद्युति का बनाया हुआ यह स्तोत्र भगवान को अत्यंत प्रिय है और भगवान के दर्शन कराने वाला है. “योग सागर” नाम का यह स्तोत्र परम पवित्र है. जो कोई भक्ति पूर्वक इसको पढ़ता है वह विष्णु लोक को जाता है. अब पिशाच मोक्ष की कथा कहते हैं.

माघ मास महात्म्य तेइसवां अध्याय The Mahatmya of the Month of Magh, Chapter Twenty-third in Hindi 

लोमश ऋषि कहने लगे कि जिस पिशाच को देवद्युति ने मुक्त किया वह पहले द्रविड़ नगर में चित्र नाम वाला राजा था. वह बड़ा शूरवीर, सत्य परायण तथा पुरोहितों को आगे करके यज्ञ आदि करता था. दक्षिण दिशा में उसका राज्य था और उसके कोष धन से भरे हुए थे. उसके पास बहुत से हाथी-घोड़े और रथ थे और वह अत्यंत शोभा को प्राप्त होता था. बहुत सी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करता था और अनेक यज्ञ उसने किए थे. वह नित्य अतिथियों की पूजा करता था और शस्त्र विद्या में निपुण था. ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा सूर्य की पूजा सदैव किया करता था. वह जंगल में भी स्त्रियों से घिरा हुआ क्रीड़ा किया करता था.

एक बार वह पाखंडियों के मंदिर में गया और वेदहीन, भस्म लगाए महात्मा बने हुए पाखंडियों से उस राजा की बातचीत हुई. पाखंडियों ने कहा कि हे राजन! शैव धर्म की महिमा सुनो. इस धर्म के प्रभाव से मनुष्य पाप को काटकर मुक्त हो जाता है. सब वर्णों में शैव मत ही मुक्ति देने वाला है. शिव की आज्ञा के बिना दान, यज्ञ और तपों से कुछ नहीं बनता. शिव का सेवक होकर भस्म धारण करने, जटा रखने से ही मनुष्य मुक्त हो सकता है. जटा धारण करने तथा भस्म लेपन से ही मनुष्य शिव के समान हो जाता है. इसके बराबर कोई पुण्य नही है. जटा, भस्म धारण किए हुए सभी योगी शिव के सदृश होते हैं. अंध, जड़, नपुंसक तथा मूर्ख सब जटा से ही पहचाने जाते हैं. शूद्र वर्ण के शैव भी पूजनीय हैं.

विश्वामित्र क्षत्रिय होकर तप से ब्राह्मण हो गए, बाल्मीकि चोर होकर उत्तम ब्राह्मण हो गए. अतएव शिव पूजन में किसी बात का विचार नहीं है. तप से ही ब्रह्मत्व प्राप्त होता है, जन्म से नहीं. इस कारण शैव का दर्शन उत्तम है तथा शिव के सिवाय दूसरे देवता का पूजन न करें. शिव तपस्वी को विष्णु का त्याग करना चाहिए. विष्णु की मूर्ति का पूजन नहीं करना चाहिए. विष्णु के दर्शन से शिव का द्रोह उत्पन्न होता है और शिव के द्रोह से रौरवादि नरक मिलते हैं. इसी से भवसागर से पर होने के लिए विष्णु का नाम भी नहीं लेना चाहिए. शिव भक्त नि:शंक होकर जो शिव से प्रेम करता है वह कैलाश में वास करता है इसमें कुछ संदेह नहीं. इस धर्म का पालन करने वालों का कभी नाश नहीं होता.

इस पाखंडी के ऎसे वचन सुनकर राजा ने मोह में आकर उनका धर्म ग्रहण कर लिया और वैदिक धर्म को त्याग दिया. वह श्रुति, स्मृति और ब्राह्मणों की निंदा करने लगा. उसने अपने घर के अग्निहोत्र को बुझा दिया और धर्म के कार्य बंद कर दिए. विष्णु की निंदा और वैष्णवों से द्वेष करने लगा और बोला – कहां है विष्णु, कहाँ देखा जाता है? कहाँ रहता है? किसने देखा है? और जो लोग नारायण का भजन करते थे उनको दुख देता था. पाखंडियों का मत ग्रहण कर राजा वेद, वैदिक धर्म, व्रत, दान और दानियों को नहीं मानता था.

अन्याय से दंड देता वह कामी राजा सदा स्त्रियों के समूह से घिरा रहता और क्रोध से भरा रहता. गुरु तथा पुरोहितों के वचनों को नहीं मानता था. पाखंडियों पर विश्वास करता हुआ उनको गाँव, हाथी, घोड़े और सुवर्ण आदि देता था. उनके सब कार्य करता, भस्म धारण करता और मस्तक पर जटा रखता था और जो कोई विष्णु का नाम लेता उसको मृत्यु का दंड दिया जाएगा, यह ढिंढोरा उसने पिटवा दिया था. उसके भय से ब्राह्मणों तथा वैष्णवों ने उस देश को छोड़ दिया और दूसरे देशों में चले गए.

सारे देशवासी केवल नदी के जल से जीते थे, जीविका से दुखी होकर वृक्ष आदि नहीं लगाते थे न ही खेती बाड़ी करते थे. प्रजा अन्न के अभाव से गला-सड़ा अन्न भी खा लेती थी. आचार-विचार अग्नि क्रिया सबको छोड़कर काल रूप की तरह वह राजा शासन करता था. कुछ काल पश्चात उस राजा की मृत्यु हो गई और वैदिक रीति से उसकी क्रिया भी नहीं की गई. यह यमदूतों से अनेक प्रकार के दुख उठाता रहा, कहीं लोहे की कीलों पर से चलना पड़ा, कहीं जलते अंगारों पर चलना पड़ा, जहाँ सूर्य अति तीव्र था और न कोई छाया का वृक्ष था.

कहीं लोहे के डंडों से पीटा गया, कहीं बड़े-बड़े दांतों वाले भेड़ियों और कुत्तों से काटा गया. इस प्रकार दूसरे पापियों का हाहाकार सुनता हुआ वह राजा यम-लोक में पहुंचा।

माघ मास महात्म्य चौबीसवां अध्याय The Mahatmya of the Month of Magh, Chapter Twenty-four 

लोमश जी कहने लगे कि वह राजा पहले तो तामिश्र नामी नरक में गया फिर अंध तामिश्र नरक में जहाँ पर अति दुखों को प्राप्त हुआ. फिर महारौरव, फिर कालसूत्र नामी महा नरक में गया, फिर मूर्छा को प्राप्त हो गया. मूर्छा से चेतना आने पर तापन और संप्रतापन नाम के नरक में गया. अनेक दुखों को भोगता हुआ वह प्रताप नाम के नरक में गया तब काकोल, कुड़पल, पूर्व मृतिका, लोहशंकु, मृजीप आदि नरकों में होता हुआ असि-पत्र वन में पहुंचाया गया फिर लोह धारक आदि नरकों में गिराया गया. भगवान विष्णु के साथ द्वेष करने के कारण वह इक्कीस युग तक भयंकर नरकों की यातना भोगता हुआ नरक से निकलकर हिमालय पर्वत पर बड़ा भारी पिशाच हुआ.

उस वन में वह भूखा और प्यासा फिरता रहा. उसको मेरु पर्वत पर भी कहीं खाने को न तो भोजन मिला और न ही पीने को जल. होतव्यता के कारण वह पिशाच घूमता हुआ एक समय प्लुत प्रस्त्रवण नाम के वन में जा निकला. बहेड़े के वृक्ष के नीचे वह दुखी होकर ‘हाय मैं मरा, हाय मैं मरा’ ऎसे शब्द जोर-जोर से पुकारने लगा और कहने लगा भूख से दुखी मेरे इस जन्म का कब अंत होगा. इस पाप रुपी समुद्र में डूबते हुए मुझको कौन सहारा देगा.

लोमश जी कहने लगे कि इस प्रकार वेद पाठ करते हुए देवद्युति ने उसके दुख भरे वचनों को सुना और वहाँ पर एक पिशाच को देखा जिसकी लाल डरावनी आँखें, दुर्बल शरीर, काले-काले ऊपर खड़े बाल, विकराल चेहरा, काला शरीर, लम्बी सी जीभ बाहर निकली हुई, लम्बे होंठ, लम्बी जाँघें, लम्बे-लम्बे पैर, सूखा चेहरा, आँखों में पड़े गढ्ढे वाले पिशाच को देखकर देवद्युति ने उससे पूछा कि तुम कौन हो और ऎसी करुणा से क्यों रोते हो? तुम्हारी यह दशा कैसे हुई और तुम्हारा मैं क्या उपकार करूं? मेरे आश्रम पर आ जाने से कोई प्राणी दुखी नहीं रहता और वैष्णव लोग आनंद ही करते हैं. सो हे भद्र! तुम अपने इस दुख का कारण जल्दी कहो क्योंकि विद्वान मनोरथ पाने के लिए विलंब नहीं किया करते.

ऎसे वचन सुनकर प्रेत रोना बंद करके विनीत भाव से कहने लगा कि हे द्विज! किसी बड़े पुण्य में मुझको आपके दर्शन हुए हैं. बिना पुण्य के साधुओं की संगति नहीं होती और फिर उसने पहले जन्म का वृत्तांत कहा कि भगवान विष्णु के द्वेष के कारण मेरी यह दशा हुई है. जिस हरि का नाम यदि अंत समय में मनुष्य के मुख से निकल जाए तो मनुष्य विष्णु पद को प्राप्त होता है जो सबका पालन करता है उसी से मैंने द्वेष किया. यह सब मेरे कर्मों का दोष है. जिसकी ब्राह्मण तप द्वारा प्रार्थना करते हैं, ब्रह्मादि देवता, सनकादिक ऋषि जिसको मुक्ति के लिए पूजते हैं, जो आदि, मध्य व अंत में विश्व का विधाता और सनातन है. जिसका आदि, मध्य और अंत नहीं है, उस भगवान के साथ मैंने द्वेष किया.

जो कुछ पुण्य किए मैंने पहले जन्म में किए थे. वह सब विष्णु की द्वेष रूपी अग्नि में भस्म हो गए. यदि किसी प्रकार मेरे इस पाप का नाश हो जाए तो मैं भगवान विष्णु के सिवाय किसी और देवता का पूजन नहीं करुंगा. विष्णु भगवान से द्वेष कर के मैंने बहुत दिनों तक नर्क यातना भोगी और पिशाच योनि में पड़ा हूँ. इस समय मैं किसी अच्छे कर्म के योग से आपके आश्रम में आया हूँ. जहाँ पर आपके सूर्य रूपी दर्शन ने मेरे दुख समान अंधकार को दूर कर दिया है. अब आप कोई ऎसा उपाय बताइए जिससे मेरी यह पिशाच योनि दूर हो क्योंकि सज्जन पुरुष उपकार करने में देर नहीं करते हैं.

देवद्युति कहने लगे कि यह माया देवता, मनुष्य, असुर सबकी स्मृति को मोहित कर देती है जिससे धर्म का नाश करने वाला द्वेष उत्पन्न हो जाता है. जगत के उत्पन्न करने, रक्षा करने और नाश करने वाले जो सब प्राणियों की आत्मा है उनसे भी लोग द्वेष करते हैं. जिनके अर्पण करने से सभी कर्म सफल होते हैं उनकी भक्ति से मुख मोड़ने वाले मूर्ख कौन सी गति को प्राप्त नहीं होते. चारों वर्णों का वेदोक्त हरि का भजन करना ही उत्तम है अन्यथा कुमार्ग में चलने वाले मनुष्य नरक के गामी होते हैं.

इसी कारण वेद विरुद्ध कर्मों को त्यागना चाहिए. अपनी बुद्धि से बचे हुए धर्म के मार्ग पर चलने से मनुष्य परलोक के पथ का भी नाश करते हैं. वह वेद, देवता और ब्राह्मणों की निंदा करते हैं. झूठे मन कल्पित शास्त्रों को मानने वाले नरक में जाते हैं. देवाधिदेव विष्णु से विमुख होने वाले नरक में जाते हैं, जैसे द्रविड़ देश का राजा नरक में गया. इस कारण इनकी निंदा नहीं करनी चाहिए और वेद में न कही गई क्रिया को भी नहीं करना चाहिए.

लोमशजी कहने लगे कि ऎसा कहने पर मुनि ने पिशाच को सुमार्ग बतलाया कि माघ मास में तुम प्रयाग में जाकर स्नान करो उससे तुम्हारी वह पिशाच योनि समाप्त हो जाएगी. माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से मनुष्य पहले जन्म के सब पापों से मुक्त हो जाता है वहाँ पर स्नान करने से मुक्ति प्राप्त होती है. इससे बढ़कर और कोई प्रायश्चित नहीं. संसार में यह मोक्ष और स्वर्ग का खुला हुआ द्वार है. गंगा और यमुना का संगम त्रिवेणी संसार में सबसे उत्तम तीर्थ है.

पापरूपी बंधन को काटने के लिए यह कुल्हाड़ी है. कहां तो विष्णु, सूर्य, तेज, गंगा, यमुना का संगम और कहां यह तुच्छ पापरूपी तृण की आहुति. जैसे घने अंधकार को दूर करने वाला शरद का चंद्रमा चमकता है उसी तरह संगम के स्नान से मनुष्य पवित्र हो जाता है. मैं तुमसे गंगा-यमुना के संगम का वर्णन नहीं कर सकता जिसके जल की एक बूँद के स्पर्श से केरल देश का ब्राह्मण मुक्त हो गया. ऋषि के ऎसे वचन सुन प्रेत के मन में शांति उत्पन्न हो गई मानो सब दुखों से छूट गया हो. प्रसन्नता से उसने विनयपूर्वक ऋषि से पूछा.(ऋषि से क्या पूछा इसका वर्णन अगले अध्याय में किया जाएगा)

माघ मास महात्म्य पच्चीसवां अध्याय The Mahatmya of the Month of Magh, Chapter Twenty-five in Hindi 

पिशाच कहने लगा कि हे मुनि! केरल देश का ब्राह्मण किस प्रकार मुक्त हुआ यह कथा कृपा करके विस्तारपूर्वक कहिए. देवद्युति कहने लगा केरल देश में वासु नाम वाला एक वेद पारंगत ब्राह्मण था. उसके बंधुओं ने उसकी भूमि छीन ली जिससे वह निर्धन और दुखी होकर अपनी जन्मभूमि त्यागकर देश-विदेश में घूमता किसी व्याधि से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया. उसका कोई बांधव न होने के कारण उसकी और्घ्व वैदिक क्रिया नहीं हुई और न ही उसकी दाह-क्रिया हुई. इस प्रकार क्रिया के लोप होने से निर्जन वन में प्रेत होकर चिरकाल तक फिरता रहा. शीत, ताप, भूख-प्यास के दुख से हाहाकार करता हुआ वह नंगे शरीर रोता–फिरता था परंतु उसको कहीं सद्गति नहीं दिखाई देती थी

सर्वथा दान न देने से वह अपने कर्म फल को भोगता था. जो लोग अग्नि में आहुति नहीं देते, भगवान का पूजन नहीं करते वे आत्मविद्या का अभ्यास नहीं करते, अच्छे तीर्थों से विमुख रहते हैं. जो लोग दुखी लोगों को स्वर्ण, वस्त्र, तांबूल, रत्न, फल तथा जल नहीं देते तथा छल-कपट से जीविका प्राप्त करने वाले, दूसरों तथा स्त्रियों का धन हरने वाले, पाखंडी, कुटिल, चोर, बाल-वृद्ध तथा आतुर और स्त्रियों पर निर्दयता करने वाले, आग लगाने वाले, विष देने वाले, झूठी गवाही देने वाले, कुमार्ग पर चलने वाले, माता-पिता, भाई, बहन, संतान तथा अपनी स्त्री का त्याग करने वाले, जो सब तीर्थों में दान लेते हैं,

पालन करने वाले स्वामी को त्यागने वाले, गौर तथा भूमि के चोर, वेदों की निंदा करने वाले, वृथा द्रोह करने वाले, प्राणियों की हिंसा करने वाले, देवता, गुरु की निंदा करने वाले यह सभी बारम्बार प्रेत, पिशाच, राक्षस तथा बुरी योनियों में जन्म लेते हैं.

अतएव बुरे कर्मों से बचकर धर्म के कार्य तथा यज्ञ, दान और तप आदि करने चाहिए क्योंकि कर्म फल अवश्यमेव मिलता है. इस प्रकार प्रेत की गति देखकर पाप कर्म कदापि नहीं करने चाहिए. ब्राह्मण कहने लगा कि इस प्रकार उस केरल ब्राह्मण ने उस पर्वत पर अधिक समय व्यतीत करके एक मार्ग में एक पथिक को देखा जो दो गगरियों में त्रिवेणी का जल लिए हुए था. आनंदपूर्वक भगवान के चरित्र का गान कर रहा था. प्रेत ने उसका मार्ग रोककर कहा कि तुम डरो मत. इस गगरी का जल मुझको पिलाओ नहीं तो मैं तुम्हारे प्राण ले लूंगा. देवद्युति कहने लगा कि दुखी, दुर्बल, नंगे, मुरझाए हुए, तुम कौन हो? पैरों से पृथ्वी को स्पर्श न करके चलते हो. लोमशजी बोले प्रेत यह वचन सुनकर कहने लगा कि मेरे ऎसा होने का कारण सुनो.

मैंने कभी ब्राह्मणों को दान नहीं दिया, अत्यंत लोभी, क्रियाहीन, दूसरे के अन्न से पलने वाला था. मैंने कभी किसी को भिक्षा नहीं दी, न दूसरे के दुख से दुखी हुआ. प्यासे प्राणियों को मैंने कभी जल नहीं पिलाया, मैंने कभी छाता, जूता दान नहीं किया, न किसी को जल का पात्र, पान या औषधि किसी को दी. न मैंने अपने घर में कभी किसी अतिथि को ठहराकर उसका सत्कार किया. अंधे, वृद्ध, अनाथ और दीनों को मैंने कभी अन्न से संतुष्ट नहीं किया और न ही किसी रोगी को मुक्त किया न कभी ब्राह्मणों को दान दिया, न कभी अग्नि में हवन किया.

वैशाखादि मास में किसी को ठंडा जल नहीं पिलाया, न ही मैंने बड़ या पीपल का कोई वृक्ष लगाया. न किसी प्राणी को बंधन से छुड़ाया, कभी कोई व्रत करके शरीर को नहीं सुखाया.

इस कारण मेरा पूर्व जन्म सब बुरे कार्यों में ही व्यतीत हुआ. मेरे पूर्व जन्म के कर्मों से ही मेरी यह गति हुई है. इस वन में व्याघ्र, भेड़िए से बचा हुआ मांस तथा जंतुओं के खाने से गिरे हुए फल, वृक्षों पर लगे हुए सुंदर फल तथा झरने का सुंदर जल सब ही मिलते हैं परंतु देव इच्छा से मैं कुछ नहीं खा सकता. सर्प की तरह केवल पवन भक्षण करके जीवन व्यतीत करता हूँ. बल, बुद्धि, मंत्र पुरुषार्थ से लाभ-हानि, सुख-दुख, विवाह, मृत्यु, जीवन, भोग, रोग तथा वियोग में केवल भाग्य ही कारण होता है. कुरुप, मूर्ख, कुकर्मी, निंदित तथा पराक्रम से हीन मनुष्य भी भाग्य से ही राज्य भोगते हैं. काणे, लूले, लंगड़े, नीतिहीन, निर्गुण नपुंसक भाग्य से राज्य प्राप्त करते हैं.

पर्वत पर भी बलवान राक्षस पिशाच रहते हैं, जिनमें से कभी-कभी कोई-कोई कहीं-कहीं वन में फिरते हुए अपने कर्म के अनुसार अन्न, जल प्राप्त करते हैं परंतु आपको उनका भय नहीं होना चाहिए क्योंकि धर्मात्मा पुरुषों की उनकी पवित्रता ही रक्षा करती है. ग्रह, नक्षत्र, देवता सर्वथा धर्मात्माओं की रक्षा करते हैं. यह पिशाच आप जैसे भक्त की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देख सकते.

जो नारायण भगवान की भक्ति से पवित्र रहता है उसको प्रेत, पिशाच, पूतना कोई बाधा नहीं दे सकते. भूत, बेताल, पिशाच, गंधर्व काकिन, शाकिनी, ग्रह रेवती, यज्ञ मातृ ग्रह, भयंकर ग्रह, कृत्या, सर्पकुष्माण्ड तथा दूसरे दुष्ट जंतु पवित्र वैष्णव की तरफ देख भी नहीं सकते. जिसकी जीव्हा पर गोविंद का नाम, हृदय में वेद तथा श्रुति विद्यमान हैं जो पवित्र और दानी हैं उनको कभी भय नहीं हो सकता. हे ब्राह्मण! इस प्रकार कर्मों का फल भोगता हुआ मैं यहाँ रहता हूँ. ऎसा सोचकर मैं शोक नहीं करता. एक बार मैं जंवालिनी नदी के किनारे पर गया था वहाँ पर घूमते हुए मैंने सारस के वचनों को सुना था.

माघ मास महात्म्य छब्बीसवाँ अध्याय Magh month Mahatmya twenty-sixth chapter in Hindi 

पथिक कहने लगा कि हे प्रेत! तुमने सारस के वचन किस प्रकार और क्या सुने थे. सो कृपा करके कहिए. प्रेत कहने लगा कि इस वन में कुहरा नाम की नदी पर्वत से निकली है. मैं घूमता-घूमता उस नदी के किनारे पहुंचा और थकावट दूर करने के लिए वहाँ पर ठहर गया. उसी समय लाल मुख और तीखे दाँतों वाला एक बड़ा बंदर वृक्ष से उतरकर जल्दी से वहाँ पर आया जहाँ एक सारस सोया हुआ था.

उस चंचल बंदर ने कई एक पक्षियों को देखकर उस सोए हुए सारस को दृढ़ता से पैरों से पकड़ लिया और तो सब पक्षी उड़कर वहाँ से चले गए परंतु सारसी भयभीत होकर विलाप करती हुई वहीं पर रुक गई. नींद के दूर होने तथा भय से नेत्र खोलकर सारस ने बंदर को देखा और मधुर वाणी से कहने लगा – हे बंदर! तुम बिना अपराध मुझको क्यों दुख देते हो. इस संसार में राजा भी केवल अपराधियों को ही दंड देता है.

तुम्हारे जैसे श्रेष्ठ प्राणी किसी को पीड़ा नहीं देते. हम अहिंसक और दूसरे के कर्मों को नहीं देखते. जल की काई खाने वाले, आकाश में उड़ने वाले, वन में रहने वाले, अपनी स्त्री से प्रेम करने वाले, दूसरों की स्त्री को त्यागने वाले, दूसरों की बुराई से दूर रहने वाले, चोरी न करने वाले, बुरों की संगति से वर्जित, किसी को कष्ट न देने वाले हैं. सो इस प्रकार मुझ निरपराधी को हे बंदर छोड़ दो. मैं तुम्हारे पहले जन्म के वृत्तांत जानता हूँ.

यह वचन सुनकर वह बंदर उसको छोड़कर दूर बैठ गया और कहने लगा कि तुम मेरे पूर्व जन्म के वृत्तांत को कैसे जानते हो? तुम अज्ञानी पक्षी हो और मैं वन में घूमने वाला हूँ. सारस कहने लगा कि मैं अपनी जाति की स्मृति के बल से तुम्हारे पूर्व जन्म का सब वृत्तांत जानता हूँ. तुम पूर्व जन्म में विन्ध्य पर्वत के राजा थे और मैं तुम्हारे कुल का पूज्य पुरोहित था. तुम राजा होकर अपनी प्रजा को पीड़ा दिया करते थे. विवेकहीन तुमने बहुत सा धन इकठ्ठा किया. सो वानर! प्रजा की पीड़न रूपी अग्नि की ज्वाला से तुम पहले ही तप चुके हो. पहले तुम कुंभीपाक नरक में गिराए गए.

तुम्हारे शरीर को नरक में तीन हजार वर्ष बीत गए. फिर नरक से निकलकर बचे हुए पापों के कारण इस बंदर की योनि में आए और मुझको मारना चाहते हो

पूर्व जन्म में तुमने ब्राह्मण के बाग से लूटकर बलपूर्वक फल खाए थे उसका यह भयंकर फल हुआ कि तुम वानर और वनवासी हुए. प्राणी अवश्यमेव अपने किए हुए कर्मों को भोगता है. इसको देवता भी नही हटा सकते. इस प्रकार मैं सारस का जन्म लेकर भी अज्ञान से मोहित नहीं हुआ.

इतनी कथा कहकर वानर कहने लगा कि यदि ठीक ही जानते हो तो बताओ तुम पक्षी कैसे हुए? सारस कहने लगा कि मेरी दुर्गति का कारण भी सुनो. तुमने नर्मदा नदी के किनारे पर सूर्य ग्रहण के समय बहुत-से ब्राह्मणों के निमित्त सौ ढेर अन्न के दान किए थे. मैंने पुरोहिताई के मद से थोड़ा-सा ब्राह्मणों को दिया और बाकी सब मैं आप हर ले गया. इन ब्राह्मणों के द्रव्य का अपहरण करने के पाप से मैं पहले कालसूत्र नरक में और फिर रक्त कर्दूम नरक में जहाँ पर बड़े-बड़े कीड़े थे और रक्त तथा पीप से भरा हुआ नाभि तक नीचे सिर और ऊपर पैर किए हुए पीप चाटता हुआ उस दुर्गन्ध वाले नरक में कीड़ो आदि से काटा जाकर तीन हजार वर्ष तक उस यातना को भोगता रहा.

मैं नरक के दुख का वर्णन नहीं कर सकता फिर नरक की यातना से मुक्त होकर यह सारस का जन्म पाया क्योंकि पूर्व जन्म में अपनी बहन के घर से कांसे का बर्तन चुराया था. इसको मैंने एक जुआरी को दिया, इसी से मैं सारस योनि में आया. यह मेरी स्त्री पिछले जन्म में ब्राह्मणी थी, इसने भी कांसे की चोरी की थी इसी से यह मेरी स्त्री और सारसी हुई. यह सब मैंने तुमसे कर्म फल कहा.

अब भविष्य की बात भी सुनो. अब मैं, तुम और यह मेरी स्त्री भी हंस होगें और कामरुप देश में सुख से निवास करेंगे. फिर इसके पश्चात गौर योनि में और फिर जाकर दुर्लभ मनुष्य योनि को प्राप्त होंगे. इसमें मनुष्य पाप और पुण्य दोनों ही कर सकता है. इस प्रकार शिव की माया से यह सारा जगत मोह को प्राप्त होता है.

न केवल हम ही परंतु इस संसार के सभी जीव प्रवृत्ति मार्ग में फंसकर अच्छे और बुरे कर्म करते और उनका फल भोगते हैं. इसलिए सब प्राणियों को धर्म का सेवन करना चाहिए. देवता, असुर, मनुष्य, व्याघ, कीड़े-मकोड़े सभी से कंटक रूपी मार्ग नहीं छूटता. केवल वेदांत जानने वाले योगी ही इस मार्ग से बच सकते हैं. इसी कारण बड़े-बड़े महात्मा भी कर्म फल को टाल नहीं सकते. उपाय से तथा बुद्धि से कोई भी इसको नहीं बदल सकता. तुम पहले राजा थे फिर नरक में गए, अब बंदर की योनि में वन में फिरते हो और फिर भी ऎसा ही जन्म पाओगे.

ऎसा विचार कर आनंदपूर्वक और धैर्य धरकर विचरते हुए काल की प्रतीक्षा करो तब वानर ने कहा कि पहले जन्म में मैं तुम्हारी पूजा करता था अब तुम मुझको प्रणाम करते हो. तुम जाति के स्मरण से मेरे पूर्व जन्म के वृत्तांत को जानते हो. आनंदपूर्वक रहो, तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे वचनों को सुनकर मैं मोहरहित होकर वन में विचरुंगा. प्रेत कहने लगा कि हे पथिक! मैंने नदी के तट पर बंदर और सारस का यह संवाद सुना तब मुझको बोध हुआ और मोह तथा शोक का नाश हुआ.

माघ मास महात्म्य सत्ताईसवाँ अध्याय The Mahatmya of the Month of Magh, Chapter Twenty-seven in Hindi 

प्रेत कहने लगा कि हे पथिक! मैं इस समय तुम्हारे पास जो यह गंगा जल हैं, उसे माँगता हूँ क्योंकि मैंने इसका बहुत कुछ माहात्म्य सुना है. मैंने इस पर्वत पर गंगा जल का बड़ा अद्भुत आश्चर्य देखा था इसलिए यह जल मांगता हूँ, मैं प्रेत योनि में अति दुखी हूँ. एक ब्राह्मण अनधिकारी को यज्ञ कराकर ब्रह्मराक्षस हो गया. वह हमारे साथ आठ वर्ष तक रहा. उसके पुत्र ने उसकी अस्थियों को इकठठा करके गंगा में कनखल स्थान में गिरवा दिया.

उसी समय वह राक्षसत्व त्यागकर सद्गति को प्राप्त हुआ. मैंने प्रत्यक्ष देखा है इसलिए मैंने तुमसे प्रार्थना की है. मैंने पहले जन्म में तीर्थ स्थानों में बड़े-बड़े दान लिए थे और उनका प्रायश्चित नहीं किया था. इसी से मैं हजारों वर्ष तक इस प्रेत योनि, जिसमें अन्न और जल मिलना अति दुर्लभ है, दुख पा रहा हूँ.

इस योनि में मुझको हजारों वर्ष बीत गए. इस समय आप जल देकर मेरे प्राणों को, जो कंठ तक आ गए हैं, बचाओ. कुष्ठ आदि रोग से भी मनुष्य प्राणों को त्याग करने की इच्छा नहीं करता. देवद्युति कहने लगे कि ऎसे उस प्रेत के वचन सुनकर वह ब्राह्मण बड़ा विस्मित हुआ और वह अपने मन में विचारने लगा कि संसार में पाप और पुण्य के फल अवश्य आ पड़ते हैं. देव, दानव, मनुष्य, कीड़े, मकोड़े भी रोगों से पीड़ित होते हैं. बाल तथा वृद्धों को मरण अंधा तथा कुबड़ापन, ऎश्वर्य, दरिद्रता, पांडित्य तथा मूर्खता सब कर्मों से ही होता है. इस कर्म भूमि में जिन्होंने न्याय से धन इकठ्ठा किया वह धन्य हैं.

यह सुनकर प्रेत गदगद वाणी में बोला हे पथिक! मैं जानता हूँ कि आप सर्वज्ञ हैं. आप मुझको जीवन का आधार जल इस प्रकार दो जैसे मेघ चातक को देता है तब पथिक कहने लगा कि हे प्रेत! मेरे माता-पिता भृगु क्षेत्र में बैठे हैं. मैं उन्हीं के लिए जल लाया हूँ. अब बीच में तुमने गंगा के संगम का जल मांग लिया . अब मैं इसी धर्म संदेह में पड़ा गया कि क्या कांड वस्तु में यज्ञों को इतना नहीं मानता जितना प्राण रक्षा को मानता हूँ. इसलिए प्रेत को जल देकर तृप्त करके माता-पिता के लिए फिर जल लाऊँगा.

लोमशजी कहने लगे कि इस प्रकार उस पथिक ने गंगा -यमुना के संगम का जल उस प्रेत को दिया. उस प्रेत ने प्रीतिपूर्वक जल को पिया. उसी समय वह प्रेत शरीर को छोड़कर दिव्य देहधारी हो गया. केरल कहने लगा कि बिंदु मात्र गंगा जल से वह प्रेत मुक्त हो गया.

हम समझते हैं कि ब्रह्माजी भी इस जल के गुण का वर्णन नहीं कर सकते. नहीं तो महादेवजी इस जल को मस्तक पर क्यों धारण करते. इस संसार में जो मनुष्य काया, वाचा और मनसा के पापों से रंग गए हैं वह गंगा जल के बिना नहीं घुलते. गंगा जल के सेवन से मुक्ति सदा सन्मुख खड़ी रहती है. जिसके जल को स्पर्श करते ही प्रेत प्रेतत्व को छोड़कर मुक्ति को प्राप्त होते हैं. जो गंगा स्नान करता है वह वैष्णव पद को प्राप्त होता है. यदि संबंधी लोग गंगा जल से तर्पण करें तो नरक में रहने वाले पितर लोग स्वर्ग में चले जाते हैं और स्वर्ग में रहते हुए ब्रह्मत्व को प्राप्त होते हैं. गंगा जल के समान और कोई मुक्ति का साधन नहीं.

वह प्रेत वहां से चला गया और एक मास में जब माघ मास आया तो उसने सुने हुए प्रयाग माहात्म्य के अनुसार गंगा-यमुना के संगम पर स्नान करके पिशाच शरीर को धारण कर भक्तिपूर्वक नारायण की स्तुति करता हुआ वह द्रविड़ देश का राजा गंधर्वों से सेवित उत्तम विमान पर बैठकर इंद्रपुरी को गया. सो हे द्विज! यह इतिहास पापों का जल्दी ही नाश करता है, इसमें धर्म का ज्ञान होता है. यह पुण्य, यश तथा कीर्ति को बढ़ाने वाला है.

ज्ञान तथा मोक्ष का देने वाला है. तुम भी सद्गति पाने के लिए प्रयाग चलो, वहाँ पर हम ऎसा स्नान करें जो देवताओं को दुर्लभ होता है. वहां पर श्राप से पैदा हुआ पिशाचपन सब नाश को प्राप्त हो जाएगा. इस प्राकर लोमशजी के मुख से अमृतमय मधुर कथा को सुनकर मानो अमृत पीकर सब प्रसन्न हुए और पापरुपी समुद्र से पार हुए. उन्हीं के साथ सब लोगों ने दक्षिण दिशा को प्रस्थान किया.

माघ मास महात्म्य अध्याय अठाइसवां Magh Maas Mahatmya Chapter Twenty-eighth in Hindi 

वशिष्ठजी कहने लगे कि:-

हे राजा दिलीप! बहुत से जन-समूह सहित अच्छोद सरोवर में स्नान करके सुखपूर्वक मोक्ष को प्राप्त हो गए तब लोमशजी कहने लगे संसार रूपी इस तीर्थ राजा को सब श्रद्धापूर्वक देखो. यहाँ पर तैंतीस करोड़ देवता आकर आनंदपूर्वक रहते हैं. यह अक्षय वट है जिनकी जड़े पाताल तक गई हैं और मार्कण्डेय ऋषि प्रलय के समय भगवान इसी अक्षय वट का आश्रय लेते हैं. यही शिवजी की प्रिय भगवती भागीरथी है,

जिसकी सिद्ध लोग सेवा करते हैं. यह गंगा स्वर्ग के हेतु पताका है, इसका जल पीकर मनुष्य मुक्त हो जाते हैं. हे मुनि! सभी प्राणी इस नदी को यमुना से मिली हुई पाते हैं इसका संगम बड़े पुण्य से प्राप्त होता है. इसके स्नान से जन्म मृत्यु रूपी दावानल से कोई नहीं तपता परंतु ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो जाता है. यहां पर स्नान करने से सभी प्राणी बिना ज्ञान के भी मुक्त हो जाते हैं. इसलिए ब्रह्माजी ने यहां यज्ञ करने की इच्छा की थी.

इसी संगम में भगवान विष्णु ने स्त्री प्राप्ति की इच्छा से स्नान करके लक्ष्मीजी को प्राप्त किया. यहां पर त्रिशूलधारी शिवजी ने त्रिपर दैत्य को मारा था और प्राचीन काल में उर्वशी स्वर्ग से गिरी थी तथा स्वर्ग पाने की इच्छा से यहां पर ही उसके स्नान करने से नहुष कुल के राजा ययाति ने वंशधर पुत्र प्राप्त किया. यहां पर इंद्र ने प्राचीन काल में धन की इच्छा से स्नान किया था और माया से कुबेर के सब धन को प्राप्त किया था.

प्राचीन काल में नारायण तथा नर ने हजारों वर्ष तक प्रयाग में निराहार रहकर उत्तम धर्म किया था. यहाँ से जैगाषव्य सन्यासी ने महादेव जी जैसी शक्ति वाले से विजय पाई थी तथा अणिमा आदि योग के अति दुर्लभ ऎश्वर्य प्राप्त किए थे. इसी क्षेत्र में तपस्या करके श्री भारद्वाज सप्त ऋषियों में सम्मिलित हुए. जिन्होंने भी यहां स्नान किया सबको स्वर्ग की प्राप्ति हुई. इसलिए हमारे विचार से तुम त्रिवेणी में स्नान करो. इस स्नान से पहले किए हुए तुम्हारे सब पाप नष्ट हो जाएंगे और सम्पूर्ण वैभवों को प्राप्त हो जाओगे.

ऋषि के इस प्रकार के सत्य वचन सुनकर सब ही त्रिवेणी में स्नान करने लग गए और उसी स्नान करने से सबकी पिशाचता नष्ट हो गई. शाप से विमुक्त होकर उन्होंने अपना शरीर धारण कर लिया. वेदनिधि ने अपनी संतान को देखकर प्रसन्नचित्त होकर लोमशजी को संतुष्ट किया और कहा कि आपके अनुग्रह से ही श्राप से विमुक्त हुए. अब आप इन बालकों के योग्य धर्म को कहिए. लोमशजी ने कहा कि इस युवा कुमार ने वेदों का अध्ययन समाप्त कर लिया है. इसलिए इन कन्याओं के प्रीतिपूर्वक कर कमलों को ग्रहण करें तब लोमशजी तथा अपने पिताजी की आज्ञा से इस ब्रह्मचारी ने पाँचों कन्याओं से विवाह किया. इन कन्याओं के सब मनोरथ पूर्ण हुए.

जिसके घर में लिखा हुआ यह माहात्म्य पूजा जाता है वहां नारायण ही पूजे जाते हैं. पुष्कर तीर्थ में, प्रयाग में, गंगा सागर में, देवालय में, कुरुक्षेत्र में तथा विशेष करके काशी में इसका पाठ अवश्य करना चाहिए. पुष्कर तीर्थ में ग्रहण के अवसर पर इसके पाठ का दुगना फल मिलता है और मरने पर वैष्णव पद को प्राप्त होता है

माघ मास महात्म्य सम्पूर्ण 

Must Read Magh month माघ मास महात्म्य अध्याय 1 से 10 | माघ मास महिमा 2023

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