वैशाख मास माहात्म्य अध्याय 07 इस अध्याय में:- राजा पुरुयशा को भगवान् का दर्शन, उनके द्वारा भगवत्स्तुति और भगवान् के वरदान से राजा की सायुज्य मुक्ति

श्रुतदेव कहते हैं परमात्मा भगवान् नारायण चार भुजाओं से सुशोभित थे उन्होंने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। वे पीताम्बर धारण करके वनमाला से विभूषित थे। भगवती लक्ष्मी तथा एक पार्षद के साथ गरुड़ की पीठ पर विराजित थे। उनका दुःसह तेज देखकर राजा के नेत्र सहसा मुँद गये। उनके सब अंगों में रोमांच हो आया और नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। भगवद्दर्शन के आनन्द में उनका हृदय सर्वथा डूब गया। उन्होंने तत्काल आगे बढ़कर भगवान् को साप्टांग प्रणाम किया; फिर प्रेम-विह्वल नेत्रों से विश्वात्मदेव जगदीश्वर श्रीहरि को बहुत देर तक निहार कर उनके चरण धोये और उस जल को अपने मस्तक पर धारण किया।

उन्हीं चरणों की धोवनरूपा श्रीगंगाजी ब्रह्माजी सहित तीनों लोकों को पवित्र करती हैं। तत्पश्चात् राजा ने महान् वैभव से, बहुमूल्य वस्त्र आभूषण और चन्दन से, हार, धूप, दीप तथा अमृत के समान नैवेद्य के निवेदन आदि से एवं अपने तन, मन, धन और आत्मा का समर्पण करके अद्वितीय पुराणपुरुष भगवान् विष्णु का पूजन किया पूजा के बाद इस प्रकार स्तुति की-‘जो निर्गुण, निरंजन एवं प्रजापतियों के भी अधीश्वर हैं, ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता जिनकी वन्दना करते रहते हैं, उन परम पुरुष भगवान् श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ। शरणागतों की पापराशि का नाश करने वाले आपके चरणारविन्दों को परिपक्व योग वाले योगियों ने जो अपने हृदय में धारण किया है,

यह उनके लिये बड़े सौभाग्य की बात है। बढ़ी हुई भक्ति के द्वारा अपने अन्त:करण तथा जीव भाव को भी आपके चरणों में ही चढ़ाकर वे योगीजन उन चरणों के चिन्तन मात्र से आपके धाम को प्राप्त हुए हैं। विचित्र कर्म करने वाले! आप स्वतन्त्र परमेश्वर को नमस्कार है। साधु पुरुषों पर अनुग्रह करने वाले ! आप परमात्मा को प्रणाम है। प्रभो आपकी माया से मोहित होकर मैं स्त्री और धनरूपी विषयों में ही भटकता रहा हूँ, अनर्थ में ही मेरी अर्थदृष्टि हो गयी थी प्रभो ! विश्वमूर्ते ! जब जीव पर आप अनन्त शक्ति परमेश्वर की कृपा होती है, तभी उसे महापुरुषों का संग प्राप्त होता है, जिससे यह संसार समुद्र गोपद के समान हो जाता है। ईश्वर ! जब सत्संग मिलता है, तभी आप में मन तथा बुद्धि का अनुराग होता है।

मेरा समस्त राज्य जो मुझसे छिन गया था, वह भी आपका मुझ पर महान् अनुग्रह हो हुआ था, ऐसा मैं मानता हूँ। मैं न तो राज्य चाहता हूँ, न पुत्र आदि की इच्छा रखता हूँ और न कोष की ही अभिलाषा करता हूँ। अपितु मुनियों के द्वारा ध्यान करने योग्य जो आपके आराधनीय चरणारविन्द हैं, उन्हीं का नित्य सेवन करना चाहता हूँ। देवेश्वर जगन्निवास! मुझ पर प्रसन्न होइये, जिससे आपके चरण कमलों की स्मृति बराबर बनी रहे। तथा स्त्री, पुत्र, खजाना एवं आत्मीय कहे जाने वाले सब पदार्थो में जो मेरी आसक्ति है, वह सदा के लिये दूर हो जाय। भगवन् ! मेरा मन सदा आपके चरणारविन्दों के चिन्तन में लगा रहे, मेरी वाणी आपकी दिव्य कथा के निरन्तर वर्णन में तत्पर हो,

मेरे ये दोनों नेत्र आपके श्रीविग्रह के दर्शन में, कान कथा श्रवण में तथा रसना आपके भोग लगाये हुए प्रसाद के आस्वादन में प्रवृत्त हो। प्रभो ! मेरी नासिका आपके चरणकमलों की तथा आपके भक्तजनों के गन्ध-विलेपन आदि की सुगन्ध लेने में, दोनों हाथ आपके मन्दिर में झाडू देने आदि की सेवा में, दोनों पैर आपके तीर्थ और कथास्थान की यात्रा करने में तथा मस्तक निरन्तर आपको प्रणाम करने में संलग्न रहें। मेरी कामना आपकी उत्तम कथा में और बुद्धि अहर्निश आपका चिन्तन करने में तत्पर हो। मेरे घर पर पधारे हुए मुनियों द्वारा आपकी उत्तम कथा का वर्णन तथा आपकी महिमा का गान होता रहे और इसी में मेरे दिन बीतें,

विष्णो एक क्षण तथा आधे पल के लिये भी ऐसा प्रसंग न उपस्थित हो, जो आपकी चर्चा से रहित हो। हरे! मैं परमेष्ठी ब्रह्मा का पद, भूतल का चक्रवर्ती राज्य और मोक्ष भी नहीं चाहता, केवल आपके चरणों की निरन्तर सेवा चाहता हूँ, जिसके लिये लक्ष्मीजी तथा ब्रह्मा, शंकर आदि देवता भी सदा प्रार्थना किया करते हैं।

राजा के इस प्रकार स्तुति करने पर कमलनयन भगवान् विष्णु ने प्रसन्न हो मेघ के समान गम्भीर वाणी में इस प्रकार कहा-‘राजन मैं जानता हूँ-तुम मेरे श्रेष्ठ भक्त हो, कामना रहित और निष्पाप हो। नरेश्वर ! मुझमें तुम्हारी दृढ़ भक्ति हो और अन्त में तुम मेरा सायुज्य प्राप्त करो। तुम्हारे द्वारा किये हुए इस स्तोत्र से इस पृथ्वी पर जो लोग स्तुति करेंगे, उनके ऊपर सन्तुष्ट हो मैं उन्हें भोग और मोक्ष प्रदान करूँगा। यह अक्षय तृतीया इस पृथ्वी पर प्रसिद्ध होगी, जिसमें भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हुआ। जो मनुष्य इस तिथि को किसी भी बहाने से अथवा स्वभाव से ही स्नान, दान आदि क्रियाएँ करते हैं, वे मेरे अविनाशी पद को प्राप्त होते हैं।

जो मनुष्य पितरों के उद्देश्य से अक्षय तृतीया को श्राद्ध करते हैं, उनका किया हुआ वह श्राद्ध अक्षय होता है। इस तिथि में थोड़ा-सा भी जो पुण्य किया जाता है, उसका फल अक्षय होता है। नृपश्रेष्ठ ! जो कुटुम्बी ब्राह्मण को गाय दान करता है, उसके हाथ में सब सम्पत्तियों की वर्षा करने वाली भुक्ति और मुक्ति भी आ जाती है। जो वैशाख मास में मेरा प्रिय करने वाले धर्मो का अनुष्ठान करता है उसके जन्म, मृत्यु, जरा, भय और पाप को मैं हर लेता हूँ। अनघ! यह वैशाख मास मेरे चरण-चिन्तन की ही भाँति ऐसे सहस्रों पापों को हर लेता है, जिनके लिये शास्त्रों में कोई प्रायश्चित्त नहीं मिलता है।

राजा को यह वरदान देकर देवाधिदेव भगवान् जनार्दन सबके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर राजा पुरुयशा सदा भगवान् में ही मन लगाये हुए उन्हीं की सेवा में तत्पर रहकर इस पृथ्वी का पालन करने लगे। देवदुर्लभ समस्त मनोरथों का उपभोग करके अन्त में उन्होंने चक्रधारी भगवान् विष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लिया। जो इस उत्तम उपाख्यान को सुनते और सुनाते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होते हैं।

जय जय श्री हरि 

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