वैदिक तथा आगमशास्त्रों में बताया गया है कि किसी भी अनुष्ठान तथा पूजन अर्चना की पूर्णता हेतु कुमारी पूजन अवश्य करना चाहिए। शाक्तागम ग्रन्थ महाकालसंहिता, रूद्रयामल, कुब्जिका तंत्र, मंत्रमहोदधि, मेरूतंत्र, बडवानल तंत्र, बृहन्नील तंत्र तथा योगिनी तंत्र के अलावा स्कन्दपुराण में भी कुमारी पूजन के सन्दर्भ में पर्याप्त दिशा-निर्देश दिए गए हैं। इन शास्त्रों ने कुमारी पूजा को मॉं भगवती के नित्यार्चन का प्रमुख अंग घोषित किया है। इस सम्बन्ध में ‘महाकाल संहिता’ का कथन है

चतुणामपि कौलानां-स्मार्तानां मनुकल्पितान्

नैवात्र मतभेदोस्ति-नैवार्चनभिदापिवा 

विभिन्न शास्त्रों का यही अभिमत है कि शाक्तों (तांत्रिकों) तथा स्मार्तो (बैष्णवों एवं पंचदेवोपासकों) दोनो के लिए कुमारी पूजा करना अनिवार्य है चाहे उनके पूजन-अर्चन के विधि-विधान एवं आचार में कोई अन्तर ही क्यों न हो। धर्मशास्त्रों (वैदिक तथा तांत्रिक) ने कुमारी पूजन को सर्वश्रेष्ट धार्मिक अनुष्ठान के रूप में स्थापित किया है। ‘योगिनीतंत्र’ के अनुसार जिस स्थान पर कुमारी पूजा होती है उसके चारों तरफ पांच कोस तक का क्षेत्र अत्यन्त पवित्र हो जाता है।

रूद्रयामलतंत्र के अनुसार जो व्यक्ति कन्या पूजन करता है वह सभी देवी-देवताओं को वश में करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। ‘कालीतंत्र’ का कथन है कि शक्ति उपासक के लिए कन्या पूजन ही सर्वोत्तम उपासना है क्योंकि अन्य पूजाओं की अपेक्षा कन्या पूजा कोटि गुना फलदायिनी होती है। जो साधक कन्या को एक पुष्पाजंलि भी अर्पित करता है तो उसे कोटि सुवर्णमय मेरू की प्राप्ति के समान फल प्राप्त होता है। ‘बृहन्नीलतंत्र’ में उल्लेख किया गया है कि कुमारी पूजा के प्रभाव से अपमृत्यु, शत्रुभय दुःस्वप्न, मारक ग्रहों का दुस्प्रभाव, भूत-प्रेतजनित बाधाओं तथा समस्त रोग-ब्याधियों से मुक्ति मिल जाती है। जो कुमारी पूजन करता है उसे सभी देवतागण, लोकपाल, दिक्पाल, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, डाकिनी, शाकिनी, भैरवगण, भूत, बेताल तथा नाग प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं।

साधकों को सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि कुमारी प्रकृति-स्वरूपा होती हैं। जिस प्रकार देव-मूर्ति को पाषाण अथवा मिट्टी, श्री गुरूदेव को सामान्य मनुष्य शरीर, किसी मंत्र को मात्र वर्णमाला का अक्षरसमूह नहीं समझना चाहिए उसी प्रकार पूजन हेतु आमंत्रित कन्या को मात्र किसी व्यक्ति की लड़की नहीं समझना चाहिए। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मां भगवती किसी भी अनुष्ठान (पूजन-अर्चन) से उतनी शीघ्र प्रसन्न नहीं होती है जितना कुमारी पूजन से प्रसन्न होती है।

पूजन हेतु कुमारी की आयु (उम्र) तथा उनके शास्त्रीय नामों का विवरण 

विभिन्न आगम-ग्रन्थों में पूजा हेतु ग्रहणीय कुमारियों की उम्र के सम्बन्ध में विस्तृत उल्लेख मिलता है परन्तु सभी ग्रन्थों का एक ही मत है कि एक वर्ष की कन्या पूजन हेतु ग्रहणीय नहीं है क्योंकि उसे न तो विभिन्न उपचारों के माध्यम से की गई पूजा का महत्व ज्ञात होता है और न वह भोज्य/पेय पदार्थों को भली- भांति ग्रहण करके प्रसन्न ही हो सकती है।

एक वर्षा तु या कन्या-पूजार्थे तां विवर्जयेत्

गन्ध, पुष्प फलादीनां-प्रीतिस्तस्या न विद्यते। 

रूद्रयामल तंत्र, कुब्जिका तंत्र, बडवानलतंत्र तथा मंत्रमहोदधि में कुमारी कन्याओं की उम्र तथा उनके शास्त्रीय (पूजा हेतु प्रयुक्त) नामों का उल्लेख करते हुए निर्देश दिया गया है कि रजस्वला होने के उपरान्त कन्या कुमारी पूजन के लिए ग्रहणीय नहीं रह जाती है।

‘मंत्रमहोदधि ग्रन्थ’ के अनुसार दो वर्ष की आयु से लेकर दस वर्ष तक की कन्याओं का पूजन करना चाहिए। दो वर्ष की कन्या को ‘कुमारी’ नाम दिया गया है। तीन वर्ष की कन्या को ‘त्रिमूर्ति’ चार वर्ष की कन्या को ‘कल्याणी’ पांच वर्ष की कन्या को ‘रोहिणी’ छः वर्ष की कन्या को ‘कालिका’ सात वर्ष की कन्या को ‘चन्डिका’ आठ वर्ष की कन्या को ‘शाम्भवी’ नौ वर्ष की कन्या को ‘दुर्गा’ तथा दस वर्ष की कन्या को ‘सुभद्रा’ नाम से सम्बोधित किया गया है।

रूद्रयामल तंत्र में एक वर्ष से सोलह वर्ष तक की कन्याओं को निम्न नामों से सम्बोधित किया गया है। एक वर्ष की कन्या ‘सन्ध्या’ दो वर्ष की ‘सरस्वती’ तीन वर्ष की ‘त्रिधामूर्ति’ चार वर्ष की ‘कालिका’ पांच वर्ष की ‘सुभगा’ छः वर्ष की ‘उमा’ सात वर्ष की ‘मालिनी’ आठ वर्ष की ‘कुब्जा’ नौ वर्ष की ‘कालसन्दर्भा’ दस वर्ष की ‘अपराजिता’ ग्यारह वर्ष की ‘रूद्राणी’ बारह वर्ष की ‘भैरवी’, तेरह वर्ष की ‘महालक्ष्मी’ चौदह वर्ष की ‘पीठनायिका’ पन्द्रह वर्ष की ‘क्षेत्रज्ञा’ तथा सोलह वर्ष की कन्या को ‘अम्बिका’ कहा गया है।

बडवानल तंत्र में कुमारी की आयु के आधार पर तीन कल्पों का उल्लेख किया गया है। यथा अधमकल्प, मध्यमकल्प तथा उत्तमकल्प। इनके अन्तर्गत 2 वर्ष से 4 वर्ष तक की कन्या का पूजन अधमकल्प, पांच, छः तथा दस वर्षीय कन्या का पूजन मध्यमकल्प तथा सात वर्ष, आठ वर्ष एवं नौ वर्ष की कन्या के पूजन को उत्तमकल्प के अन्तर्गत रखा गया है।

कुब्जिकातंत्र के अनुसार पांच वर्ष से बारह वर्ष वाली कन्या को ‘कुमारी’ आठ वर्ष से तेरह वर्ष तक आयु वाली कन्या को ‘कुलजा’ तथा चौदह वर्ष से सोलह वर्ष तक की कन्या को ‘युवती’, कहा गया है।

कुमारी पूजन में सभी जातियों का सम्मान 

कुब्जिकातंत्र सचेत करता है कि कुमारी पूजन में जाति-भेद का विचार करने वाला मनुष्य नरकगामी तथा पातकी बन जाता है। उसकी साधना निष्फल हो जाती है। अतः सभी जातियों की कन्याओं का पूजन मातृभाव से तथा उन्हें देवी मानकर किया जाना चाहिए। श्री शिव जी मां पार्वती से कहते हैं

जातिभेदोन कर्तव्यः- कुमारी पूजने शिवे

जाति भेदामहेशनि-नरकान्ननिवर्तते

विचिकित्सापरो मंत्री-ध्रुंव च पातकी भवेत् 

रूद्रयामल तंत्र में उल्लेख किया गया है कि उच्चकुलीन कन्या की पूजा से कई गुना अधिक फल अन्यकुलोत्पन्न कन्या की पूजा से मिलता है। नटी, कापाली, रजकी तथा चान्डाल कुल की कन्या तो वरणीय है ही। इनसे भी अधिक महत्व वैश्याकुल में उत्पन्न कन्या को दिया गया है। देखिये

यदि भाग्यवशादेवि-वैश्याकुलसमुद्भवाम्

कुमारी लभते कान्ते-सर्वस्वेनापि साधकः

यत्नतः पूजयेन्ता तु-स्वर्ण रौप्यादिभिर्मुदोः

तदा तस्य महासिद्धि-जायते नात्र संषयः।।

(श्री शिवजी मां पार्वती से कहते हैं कि यदि सौभाग्य से वैश्याकुलोत्पन्न कन्या मिल जाये तो उसकी देवी भाव से पूजा करने और स्वर्ण चांदी देकर प्रसन्न करने वाले साधक को महासिद्धि प्राप्त हो जाती है।)

श्रीविद्यार्णव तंत्र ने तो सभी जातियों की कन्याओं का सम्मान करते हुए उन्हें ‘कुलागंना’ (कुलदेवी) घोषित किया है। देखिए

ब्रहमाणी, क्षत्रिय, वैश्या-शूद्रा च कुलसम्भवा

वैश्या, नापितकन्या च-रजकी नटकी तथा

विशेष वैदग्ध्ययुता-सर्वाएव कुलांगना 

स्कदपुराण का अभिमत है कि अन्त्यजा कुमारी का पूजन करने से समस्त प्रकार की विपत्तियों से मुक्ति मिल जाती है।

कामनापूर्ति हेतु कुमारी पूजन 

विभिन्न आगमशास्त्रों में यह भी बताया गया है कि विभिन्न कामनाओं यथा शत्रुनाश, वंशवृद्धि, धन-वैभव वृद्धि, शारीरिक तथा मानसिक रोग-ब्याधियों का निवारण तथा दुष्ट-ग्रहों की मारक दशा से मुक्ति पाने हेतु मनुष्य को किस जाति तथा किस आयु की कन्या का पूजन करना चाहिए। इन शास्त्रों के अनुसार शत्रुनाश हेतु ‘काली’ नामक कन्या, युद्ध में विजय हेतु ‘चन्डिका’ दुःख-कष्टों से मुक्ति पाने के लिए ‘दुर्गा’ तथा समस्त प्रकार के पापों से छुटकारा पाने के लिए ‘शाम्भवी’ नामक कन्या का पूजन करना चाहिए।

कन्या की जाति के सन्दर्भ में बताया गया है कि कार्य-सिद्धि हेतु ब्राहमण कन्या, शत्रु-विजय हेतु क्षत्रिय कन्या, धन-वैभव की प्राप्ति हेतु वैश्यकन्या तथा अपना समस्त कल्याण चाहने के लिए शूद्र-कुलोत्पन्न कन्या का पूजन करना चाहिए। रूद्रयामल तंत्र का निर्देश है कि महासिद्धि प्राप्त करने हेतु वैश्याकुल में उत्पन्न कन्या तथा समस्त श्रेयों की प्राप्ति हेतु रजकी, नटी, कपाली तथा चान्डाल कुलोत्पन्न कन्या की पूजा करनी चाहिए। मेरूतंत्र के अनुसार ब्राह्मण कन्या की पूजा से समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति, क्षत्रिय कन्यापूजन से यश की प्राप्ति, वैश्य कन्या की पूजा से धन की प्राप्ति एवं शूद्र कन्या की पूजा करने से पुत्र प्राप्ति होती है।

सभी शास्त्रों का अभिमत है कि जो कन्या अधिक अंगवाली, हीनअगवाली, दिव्यांग, रोगिणी, खन्जा, सर्वांगरोम वाली, कुरूपा तथा क्रोधी हो उसकी पूजा नहीं करनी चाहिए।

कुमारी पूजा की विधि Kumari Puja Method

यद्यपि सभी सनातन-धर्मी प्रत्येक वर्ष नवरात्रियों में (विशेषतया नवमी तिथि को) परम्परागत वैदिक विधि-विधान के साथ कुमारी पूजा करते हैं परन्तु विभिन्न आगमग्रन्थों में कुमारी पूजन हेतु विस्तृत विधि-विधान उपलब्ध होता हैं। इन ग्रन्थों में विशेष मंत्रो का उललेख किया गया है जिनका प्रयोग दीक्षायुक्त अधिकारी साधक ‘कुलकुमारी’के सर्वांग पूजन हेतु करता है। सामान्य व्यक्ति के लिए इन मंत्रों का विशेष महत्व न समझते हुए यहॉं पर केवल कुमारी पूजन की प्रचलित विधि का विवरण दिया जा रहा है। यह ध्यान रखना हेगा कि पूजन बृद्धि-क्रम के अनुसार ही किया जाये। यथा प्रतिपदा में एक कन्या, चतुर्थी को चार कन्याऐं, नवमी को नौ कन्याओं का पूजन करना चाहिए। अन्यथा कुमारियों की संख्या अयुग्म (विषम) होनी चाहिए।

साधक को प्रस्तावित पूजा के एक दिन पूर्व ही कुमारियों के घर जाकर उन्हें पूजा के लिए निमंत्रण देकर आना चाहिए। जब कुमारी उसके घर में उपस्थित हो जाये तो उसे घर के अन्दर प्रवेश कराने से पूर्व उसके चारों तरफ अक्षत (चावल) फैककर उसके साथ आये हुए भूतादि क्षुद्र आत्माओं को भगा देना चाहिए। अब कुमारी को श्री जगदम्बा का स्वरूप मानते हुए अपने बांये हाथ से उसका दांया हाथ पकड़कर निम्न पांच श्लोकों को पढ़ते हुए उसे पूजागृह में ले जाना चाहिए।

1. ॐ समस्त जगतामाद्ये-जगदाधार रूपिणि।

कुमारी रूप मास्थाय-प्रविशेंदं ग्रहं मम।।

2. भवत्या कीदृशं रूपं-जाने मातरहं नहि।

कुमारी रूप मेवेदं-पश्यामि नर चक्षुणा।।

3. भक्तिं मदीयां विज्ञाय-त्वत्पदाम्बुजयो शिवे।

त्वया प्रकटितं रूप-मीदृशं सर्व सिद्वये।।

4. दृष्टिः कार्या नमेपापे-संचरेणासतः पथः

दृष्ट्वा च केवला भक्ति-र्दातव्या सुरवन्दिते।।

5. शिवाद्यास्तवरूपंहि-कीदृशं नेति जानते

ज्ञास्यामि को वराकोहं-पांचभौतिक विग्रहः।।

इस प्रकार कुमारी को पूजाग्रह में उचित आसन पर बिठाकर उसके समस्त अंगो (शिर से चरण पर्यन्त-51 अंग) में कुमारी न्यास करके यह भावना कर लेनी चाहिए कि वह अब सामान्य लड़की न रहकर श्री जगदम्बा का स्वरूप धारण कर चुकी है। साधक को स्वयं भी नवार्ण मंत्र अथवा श्री बाला त्रिपुरा के मंत्र से प्राणायाम करके रिष्यादि एवं षडगन्यास करना चाहिए। पुनः श्री गुरूदेव, श्री गणेश तथा श्री दुर्गारूपिणी कुमारी को प्रणाम करते हुए दिग्बन्धन करना चाहिए। अपने अभीष्ट की सिद्धि हेतु साधक को संकल्प करना चाहिए। कुमारी के चरणों को धोकर उस जल का कुछ अंश ग्रहण कर शेष जल को अपने गृह में छिड़क देना चाहिए। विघ्नोत्सारण मंत्र पढ़कर अपनी चारों दिशाओं में अक्षत फेंककर समस्त विघ्नकारक एवं दुष्ट योनि की आत्माओं को भगा देना चाहिए। पुनः कुमारी को देवी-स्वरूपा समझकर उसका निम्न श्लोक पढ़ते हुए ध्यान करे-

ॐ बालारूपांच त्रैलोक्य-सुन्दरी वर वर्णिनीम्।

नानालंकार नंम्रागी-भद्रविद्या प्रकाशिनीम।।

चारूहासां महानन्द विग्रहां शुभदां शिवाम्।

ध्यायेत् कुमारिकां देवी-अरूणांरूण संप्रमाम।।

इस प्रकार ध्यान करके कुमारी के शरीर को सुसज्जित करने के लिए उसे इत्र, सुगन्धित तेल तथा अन्य सुगन्धित द्रव्य प्रदान करे तथा ओढने के लिए रक्तवस्त्र समर्पित करना चाहिए। इसके पश्चात कुमारी को आसन, पाद्य, अघर्य, गन्धादि (चन्दन, रक्तचन्दन, कुकुंम, सिन्दूर तथा काजल आदि) अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, कपूर-ज्योति तथा आरती करनी चाहिए। अब कुमारी को विभिन्न भोज्य-पदार्थ विशेष रूप से पायसान्न (खीर) तथा पेय पदार्थ प्रदान करने चाहिए। भोजन के पश्चात ताम्बूल, इलायची, मिठाई तथा फल खिलाना चाहिए।

पुनः आचमन प्रदान करके उसे योनिमुद्रा से प्रणाम करना चाहिए। कुमारी के भोजन करते समय साधक को मूलमंत्र का जप तथा कुमारी कवच का पाठ करना चाहिए। कुमारी के हाथ-मुंह को अपने हाथ से धोकर उसे यथोचित दक्षिणा देनी चाहिए। अन्त में निम्न श्लोकों का पाठ करते हुए कुमारी को सादर प्रणाम करने के पश्चात् उसे अपने घर से प्रसन्नता पूर्वक विदा करते हुए स्वयं साथ जाकर उसके घर में पहुंचाना चाहिए। कुमारी को प्रणाम करने के लिए आगमोक्त श्लोक इस प्रकार है-

ॐ नमामि कुल कामिनी-परमभाग्य सन्दायिनीम्

कुमार रति चातुरीं-सकलसिद्धि मानन्दिनीम्

प्रवाल गुटिकास्वज-रजतराग वस्त्रान्विताम्

हिरण्यतुल भूषणां-भुवनवाक्कुमारींभजे

मंत्रमहादधि के अनुसार दो वर्ष से दस वर्ष तक आयु की जिन नौ कुमारियों का विवरण दिया गया है उनकी पूजा के लिए प्रयुक्त होने वाले स्मार्त श्लोक इस प्रकार हैं। इन श्लोंकों का उल्लेख श्रीदेवी भागवत के 3/26/23-61 में भी किया गया है।

1- कुमारी (आयु दो वर्ष)

ॐ कुमारस्य च तत्त्वानि या सृजत्यपि लीलया।

कादीनपि च देवांस्तां कृमारीं पूजयाम्यहम् नमः।।

2- त्रिमूर्ति (आयु तीन वर्ष)

ॐ सत्वादिभिस्त्रिमूतिर्या तैहिं नाना-स्वरूपिणी।

त्रिकाल-व्यापिनी शक्तिस्त्रिमूर्तिं पूजयाम्यहम् नमः।।

3- कल्याणी (आयु चार वर्ष)

ॐ कल्याण-कारिणी नित्यं भक्तानां पूजितानिशम्।

पूजयामि च तां भक्त्या कल्याणीं पूजयाम्यहम् नमः।।

4- रोहिणी (आयु पांच वर्ष)

ॐ रोहयन्ती च बीजानि प्राग्-जन्म-सचिंतानि वै।

या देवी सर्व-भूतानां रोहिणी पूजयाम्यहम् नमः।।

5- काली (आयु छः वर्ष)

ॐ काली कालयते सर्वं ब्रह्माण्डं सचराचरम्।

कल्पान्त-समये यातां कालिकां पूजयाम्यहम् नमः।।

6- चण्डिका (आयु सात वर्ष)

ॐ चण्डिकां चण्ड-रूपां तां चण्ड-मुण्ड-विनाशिनीम्।

तां चण्ड-पाप-हारिणीं चण्डिकां पूजयाम्यहम् नमः।।

7- शाम्भवी (आयु आठ वर्ष)

ॐ अकारणात् समुत्पत्तियन्मयैः परिकीर्तिताम्।

यस्यास्तां सुखदां देवीं शाम्भवीं पूजयाम्यहम् नमः।।

8- दुर्गा (आयु नौ वर्ष )

ॐ दुर्गात् त्रायति भक्तं या सदा दुर्गति-नाशिनी।

दुर्ज्ञेया सर्व-देवानां तां दुर्गां पूजयाम्यहम् नमः।।

9- सुभद्रा (आयु दस वर्ष)

ॐ सुभद्राणि च भक्तानां कुरूते पूजिता सदा।

अभद्र-नाशिनीं देवीं सुभद्रां पूजयाम्यहम् नमः।।

रूद्रयामल तंत्र में ‘चन्डी विधान’ के अन्तर्गत मॉं दुर्गा के असुर-संहारक नाम-रूपों तथा महात्म्य का विशद वर्णन करते हुए ‘शारदीय महोत्सव’ में उनकी पूजा हेतु दुर्लभ विधान दिया गया है। इसका उपदेश भगवान शंकर द्वारा श्री विष्णु को दिया गया था। इस विधान के अन्तर्गत कुमारी पूजा हेतु जिन नौ श्लोकों का विवरण दिया गया है वह इस प्रकार है-

1. कुमारी :-

जगत्-पूज्ये जगद्बन्द्ये-सर्वशक्ति स्वरूपिणी।

पूजां ग्रहाण कौमारि! जगन्मातर्नमोस्तुते।।

2. त्रिपुरा :-

त्रिपुरां त्रिगुणां धात्री-ज्ञान-मार्ग स्वरूपिणीम्।

त्रैलोक्य वन्दितां देवी-त्रिमूर्ति पूजयाम्यहम्।।

3. कल्याणी :-

कलात्मिकां कलातीतां-कारूण्य-हृदंया शिवाम्।

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