सोमवार व्रत

नारद पुराण के अनुसार सोमवार व्रत में व्यक्ति को प्रातः स्नान कर शिव जी को जल चढ़ाना चाहिए तथा शिव-गौरी की पूजा करनी चाहिए। शिव पूजन के बाद सोमवार व्रत कथा सुननी चाहिए।

इसके बाद केवल एक समय ही भोजन करना चाहिए अथवा फलाहार या फलों के रस का सेवन भी कर सकते हैं।

सोमवार का व्रत साधारणतया दिन के तीसरे पहर तक होता है। अर्थात शाम तक रखा जाता है।

सोमवार व्रत तीन प्रकार का होता है–प्रति सोमवार व्रत, सौम्य प्रदोष व्रत और सोलह सोमवार का व्रत। इन सभी व्रतों के लिए एक ही विधि होती है। सोमवार व्रत, सौम्य प्रदोष व्रत और सौलह सोमवार तीनों की कथा अलग अलग है।

अग्नि पुराण के अनुसार चित्रा नक्षत्रयुक्त सोमवार से लगातार सात व्रत करने पर व्यक्ति को सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। इसके अलावा सोलह सोमवार का व्रत करने से मनोवाञ्छित वर प्राप्त होता है। सोलह सोमवार व्रत अविवाहित कन्याओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण और प्रभावशाली मन जाता है।

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सोमवार व्रत का महत्व

सोमवार का व्रत चैत्र, श्रावण, मार्गशीर्ष तथा कार्तिक मास में आरम्भ किया जाता है। श्रावण मास में सोमवार का व्रत करने का अधिक महत्त्व है। भविष्य पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल अष्टमी को सोमवार और आर्द्रा नक्षत्र हो, तो उस दिन से सोमवार का व्रत आरम्भ करना अति शुभकारी होता है। ग्रहण में हवन, पूजा, अर्चना व दान करने से जो पुण्य फल प्राप्त होता है, वैसा ही फल सोमवार का व्रत करनेवाले को भी प्राप्त होता है।

चैत्र मास में सोमवार का व्रत करने से गंगा-स्नान के समान, वैशाख मास के कन्यादान के समान, ज्येष्ठ मास में पुष्कर में स्नान करने के समान, आषाढ़ मास में यज्ञफल के समान, श्रावण में अश्वमेध यज्ञ के समान, भाद्रपद मास में गोदान के समान, आश्विन मास में सूर्य ग्रहण में कुरुक्षेत्र के सरोवर में स्नान करने के समान तथा कार्तिक में ज्ञानी ब्राह्मणों को दान करने के समान पुण्य प्राप्त होता है।

मार्गशीर्ष में व्रत करने से स्त्री-पुरुषो को चन्द्र-ग्रहण के समय काशी में गंगा-स्नान करने के समान, माघ मास में व्रत करने से दूध व गन्ने के रस से स्नान करके ब्रह्मा जी की पूजा करने के समान तथा फाल्गुन मास में गोदान के समान पुण्यफल प्राप्त होता है।

जल अर्पण का महत्व

सोमवार को शिवलिंग पर जल अर्पण का विशेष महत्व है। समुद्र मन्थन से निकले हलाहल का पान करने से शिव का कण्ठ नीला पड़ा गया था। विष की उष्णता को शांत करने के लिए समस्त देवी-देवताओं ने शिव पर जल अर्पण किया। तभी से जल अर्पण की परम्परा है।

सोमवार व्रत पूजा की सामग्री–भांग, बेलपत्र, जल, धूप, दीप, गंगाजल, धतूरा, इत्र, चंदन, रोली, अष्टगंध, पंचामृत (दूध, दही, घी, शक्कर, शहद)।

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सोमवार की व्रत कथा

एक नगर में एक बहुत धनवान साहूकार रहता था, जिसके घर में धन की कमी नहीं थी। परन्तु उसको एक बहुत बड़ा दुःख था कि उसके कोई पुत्र नहीं था। वह इसी चिन्ता में दिन-रात लगा रहता था। वह पुत्र की कामना के लिये प्रत्येक सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन किया करता था तथा सायंकाल को शिव मन्दिर में जाकर के शिवजी के सामने दीपक जलाया करता था। उसके उस भक्तिभाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने शिवजी महाराज से कहा कि महाराज, यह साहुकार आपका अनन्य भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा से करता है। इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए।

शिवजी ने कहा- “हे पार्वती! यह संसार कर्मक्षेत्र है। जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है। उसी तरह इस संसार में जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं।”

पार्वती जी ने अत्यन्त आग्रह से कहा- “महाराज! जब यह आपका अनन्य भक्त है और इसको अगर किसी प्रकार का दुःख है तो उसको अवश्य दूर करना चाहिए क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते हैं और उनके दुःखों को दूर करते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा तथा व्रत क्यो करेंगे?”

पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिवजी महाराज कहने लगे- “हे पार्वती! इसके कोई पुत्र नहीं है इसी चिन्ता में यह अति दुःखी रहता है। इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूँ। परन्तु यह पुत्र केवल १२ वर्ष तक जीवित रहेगा। इसके पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। इससे अधिक मैं और कुछ इसके लिए नही कर सकता।”

यह सब बातें साहूकार सुन रहा था। इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुःख हुआ। वह पहले जैसा ही शिवजी महाराज का व्रत और पूजन करता रहा। कुछ काल व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवे महीने में उसके गर्भ से अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई। साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई परन्तु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जानकर अधिक प्रसन्नता प्रकट नही की और न ही किसी को भेद ही बताया।

जब वह बालक ११ वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिए कहा तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करूँगा। अपने पुत्र को काशी जी पढ़ने के लिए भेजूँगा। फिर साहूकार ने अपने साले अर्थात् बालक के मामा को बुला करके उसको बहुत सा धन देकर कहा तुम उस बालक को काशी जी पढ़ने के लिये ले जाओ और रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते जाओ।

वह दोनों मामा-भानजे यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जा रहे थे। रास्ते में उनको एक शहर पड़ा। उस शहर में राजा की कन्या का विवाह था और दूसरे राजा का लड़का जो विवाह कराने के लिये बारात लेकर आया था वह एक ऑंख से काना था। उसके पिता को इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें। इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा तो मन में विचार किया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाये।

ऐसा विचार कर वर के पिता ने उस लड़के और मामा से बात की तो वे राजी हो गये फिर उस लड़के को वर के कपड़े पहना तथा घोड़ी पर चढा दरवाजे पर ले गये और सब कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गया। फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाय तो क्या बुराई है?

पुनः ऐसा विचार कर लड़के और उसके मामा से कहा–यदि आप फेरों का और कन्यादान के काम को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी और मैं इसके बदले में आपको बहुत कुछ धन दूँगा तो उन्होनें स्वीकार कर लिया और विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गया। जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुन्दड़ी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक ऑंख से काना है और मैं काशी जी पढ़ने जा रहा हूँ।

लड़के के जाने के पश्चात उस राजकुमारी ने जब अपनी चुन्दड़ी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है। मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है। वह तो काशी जी पढ़ने गया है। राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गयी।

उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काशी जी पहुँच गए। वहॉं जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ना शुरू कर दिया। जब लड़के की आयु बारह साल की हो गई उस दिन का उन्होंने यज्ञ कर रखा था।

लड़के ने अपने मामा से कहा–”मामाजी आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है”। मामा ने कहा–”अन्दर जाकर सो जाओ।” लड़का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गए। जब उसके मामा ने आकर देखा तो वह मुर्दा पड़ा है तो उसको बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि अगर मैं अभी रोना-पीटना मचा दूँगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा। अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राह्मणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरम्भ कर दिया।

संयोगवश उसी समय शिव-पार्वतीजी उधर से जा रहे थे। जब उन्होने जोर-जोर से रोने की आवाज सुनी तो पार्वती जी कहने लगी–महाराज! कोई दुखिया रो रहा है इसके कष्ट को दूर कीजिए।

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जब शिव-पार्वती ने पास जाकर देखा तो वहाँ एक लड़का मुर्दा पड़ा था। पार्वती जी कहने लगीं- महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से हुआ था। इस बालक को और आयु दो नहीं तो इसके माता-पिता तड़प-तड़प कर मर जायेंगे।

पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन वरदान दिया और शिवजी महाराज की कृपा से लड़का जीवित हो गया। शिवजी और पार्वती कैलाश पर्वत को चले गये।

तब वह लड़का और मामा उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते अपने घर की ओर चल पड़े। रास्ते में उसी शहर में आए जहाँ उसका विवाह हुआ था। वहाँ पर आकर उन्होने यज्ञ आरम्भ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिर की साथ ही बहुत से दास-दासियों सहित आदर पूर्वक लड़की और जमाई को विदा किया।

जब वह अपने शहर के निकट आए तो मामा ने कहा कि मैं पहले तुम्हारे घर जाकर खबर कर आता हूँ। जब उस लड़के का मामा घर पहुँचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत बैठे थे और यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी-खुशी नीचे आ जायेंगे नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण खो देंगे।

इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है तो उनको विश्वास नहीं आया तब उसके मामा ने शपथपूर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सारा धन साथ लेकर आया है तो सेठ ने आनन्द के साथ उसका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे।

इसी प्रकार से जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता या सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

डिसक्लेमर

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