लिंग का अर्थ संस्कृत में चिन्ह, प्रतीक होता है। शिवलिंग का अर्थ हुआ शिव का प्रतीक। शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्मांड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्दपुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है। शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्मांड (क्योंकि, ब्रह्मांड गतिमान है) का अक्ष/धुरी ही लिंग है। शिव लिंग का अर्थ अनन्त भी होता है अर्थात जिसका कोई अन्त नहीं है न ही शुरुआत। 

लिंगोपासना की महिमा का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। लिंग शब्द का साधारण अर्थ चिह्न अथवा लक्षण है। देव-चिह्न के अर्थ में लिंग शब्द शिवजी के ही लिंग के लिए आता है। पुराण में लयनालिंगमुच्यते कहा गया है अर्थात लय या प्रलय से लिंग कहते हैं। प्रलय की अग्नि में सब कुछ भस्म होकर शिवलिंग में समा जाता है।

वेद-शास्त्रादि भी लिंग में लीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आदि में सब कुछ लिंग से ही प्रकट होता है। शिव मंदिरों में पाषाण निर्मित शिवलिंगों की अपेक्षा बाणलिंगों की विशेषता ही अधिक है। अधिकांश उपासक मृण्मय शिवलिंग अर्थात बाणलिंग की उपासना करते हैं। गरुड़ पुराण तथा अन्य शास्त्रों में अनेक प्रकार के शिवलिंगों के निर्माण का विधान है। उसका संक्षिप्त वर्णन भी पाठकों के ज्ञानार्थ यहां प्रस्तुत है।

दो भाग कस्तूरी, चार भाग चंदन तथा तीन भाग कुंकुम से गंधलिंग बनाया जाता है। इसकी यथाविधि पूजा करने से शिव सायुज्य का लाभ मिलता है।

रजोमय लिंग के पूजन से सरस्वती की कृपा मिलती है। व्यक्ति शिव सायुज्य पाता है।

जौ, गेहूं, चावल के आटे से बने लिंग को ‘यव गोधूमशालिज लिंग’ कहते हैं। इसकी उपासना से स्त्री, पुत्र तथा श्री सुख की प्राप्ति होती है।

आरोग्य लाभ के लिए मिश्री से ‘सिता खण्डमय लिंग’ का निर्माण किया जाता है।

हरताल, त्रिकटु को लवण में मिलाकर लवज लिंग बनाया जाता है। यह उत्तम वशीकरण कारक और सौभाग्य सूचक होता है।

पार्थिव लिंग से कार्य की सिद्धि होती है।

भस्ममय लिंग सर्वफल प्रदायक माना गया है।

गुडोत्थ लिंग प्रीति में बढ़ोतरी करता है।

वंशांकुर निर्मित लिंग से वंश बढ़ता है।

केशास्थि लिंग शत्रुओं का शमन करता है।

दुग्धोद्भव लिंग से कीर्ति, लक्ष्मी और सुख प्राप्त होता है।

धात्रीफल लिंग मुक्ति लाभ और नवनीत निर्मित लिंग कीर्ति तथा स्वास्थ्य प्रदायक होता है।

स्वर्णमय लिंग से महाभुक्ति तथा रजत लिंग से विभूति मिलती है।

कांस्य और पीतल के लिंग मोक्ष कारक होते हैं।

पारद शिवलिंग महान ऐश्वर्य प्रदायक माना गया है।

लिंग साधारणतया अंगुष्ठ प्रमाण का बनाना चाहिए। पाषाणादि से बने लिंग मोटे और बड़े होते हैं। लिंग से दोगुनी वेदी और उसका आधा योनिपीठ करने का विधान है। लिंग की लंबाई उचित प्रमाण में न होने से शत्रुओं की संख्या में वृद्धि होती है।

योनिपीठ बिना या मस्तकादि अंग बिना लिंग बनाना अशुभ है। पार्थिव लिंग अपने अंगूठे के एक पोर के बराबर बनाना चाहिए। इसके निर्माण का विशेष नियम आचरण है जिसका पालन नहीं करने पर वांछित फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।

लिंगार्चन में बाणलिंग का अपना अलग ही महत्व है। वह हर प्रकार से शुभ, सौम्य और श्रेयस्कर होता है। प्रतिष्ठा में भी पाषाण की अपेक्षा बाण लिंग की स्थापना सरल व सुगम है।

नर्मदा नदी के सभी कंकर शंकर माने गए हैं। इन्हें नर्मदेश्वर भी कहते हैं। नर्मदा में आधा तोला से लेकर मनों तक के कंकर मिलते हैं। यह सब स्वतः प्राप्त और स्वतः संघटित होते हैं। उनमें कई लिंग तो बड़े ही अद्भुत, मनोहर, विलक्षण और सुंदर होते हैं। उनके पूजन-अर्चन से महाफल की प्राप्ति होती है। मिट्टी, पाषाण या नर्मदा की जिस किसी मूर्ति का पूजन करना हो, उसकी विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा, स्थापना आदि की विधियां अनेक ग्रंथों मे वर्णित है।

1. पवित्र मनुष्य सदा ही उत्तराभिमुख होकर शिवार्चन करें।

2. मृत्तिका, भस्म, गोबर, आटा, ताँबा और कांस का शिवलिङ्ग बानाकर जो मनुष्य एकबार भी पूजन करता है वह अयुतकल्प तक स्वर्ग में वास करता है।

3. नौ, आठ, और सात अँगुल का शिवलिङ्ग उत्तम होता है। तीन, छः, पाँच तथा चार अँगुल का शिवलिङ्ग मध्यम होता है। तीन, दो, और एक अँगुल का शिवलिङ्ग कनिष्ठ होता है। इस प्रकार यथा क्रम से चर प्रतिष्ठित शिवलिङ्ग नौ प्रकार का कहा गया है।‌

4. शूद्र, जिसका उपनयन सँस्कार नहीं हुआ है, स्त्री और पतित ये लोग केशव या शिव का स्पर्श करते हैं तो नरक प्राप्त करते हैं। (स्कन्द पुराण)

5. स्वयं प्रदुर्भूत बाणलिंग में, रत्नलिंग में, रसनिर्मित लिंग में और प्रतिष्ठित लिंग में चण्ड का अधिकार नहीं होता।

6. जहाँ पर चण्डाधिकार होता है वहाँ पर मनुष्यों को उसका भोजन नहीं करना चाहिये। जहाँ चण्डाधिकार नहीं होता है वहाँ भक्ति से भोजन करें। (नि.सि.पृ.सं.७२ॉ)

7. पृथिवी, सुवर्ण, गौ, रत्न, ताँबा, चाँदी, वस्त्रादि को छोड़कर चण्डेश के लिये निवेदन करें। अन्य अन्न आदि, जल, ताम्बूल, गन्ध और पुष्प, भगवान् शंकर को निवेदित किया हुआ सब चण्डेश को दे देना चाहिये। (नि.सि.पृ.सं.७१९)

8. विल्वपत्र तीन दिन और कमल पाँच दिन वासी नहीं होता और तुलसी वासी नहीं होती। (नि.सि.पृ.सं.७१८)

9. अँगुष्ठ, मध्यमा और अनामिका से पुष्प चढ़ाना चाहिये एवं अँगुष्ठ-तर्जनी से निर्माल्य को हटाना चाहिये।

अहं शिवः शिवश्चार्य, त्वं चापि शिव एव हि।

सर्व शिवमयं ब्रह्म, शिवात्परं न किञचन।। 

मै शिव, तू शिव सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। इसीलिए कहा गया है- ‘शिवोदाता, शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्। शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं। सब चाहते हैं अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है आनंद। शिव का अर्थ है- परम मेंगल, परम कल्याण।

रोगं हरति निर्माल्यं शोकं तु चरणोदकं ।

अशेष पातकं हन्ति शम्भोर्नैवेद्य भक्षणम् ।। 

भगवान शिव का निर्माल्य समस्त रोगों को नष्ट कर देता है । चरणोदक शोक नष्ट कर देता है तथा शिव जी का नैवेद्य भक्षण करने से सम्पूर्ण पाप विनष्ट हो जाते हैं ।

इतना ही नहीं शिव जी के नैवेद्य प्रसाद का दर्शन करने मात्र से पाप दूर भाग जाते हैं और शिव का नैवेद्य ग्रहण करने से खाने से करोड़ों पुण्य प्रसाद ग्रहण करने वाले मनुष्य मे समा जाते हैं

दृष्ट्वापि शिवनैवेद्यं यान्ति पापानि दूरतः ।

भुक्ते तु शिव नैवेद्ये पुण्यान्यायान्त कोटिशः ।।

जो भक्त शिव मन्त्र से दीक्षित हैं वे समस्त शिव लिंगों पर चढ़े हुये प्रसाद को खाने के अधिकारी हैं क्यों कि शिव भक्त के लिये शिव नैवेद्य शुभदायक महाप्रसाद है

शिव दीक्षान्वितो भक्तो महाप्रसाद संज्ञकम् ।

सर्वेषामपि लिङ्गानां नैवेद्यं भक्षयेत् शुभम् ।।

यहाँ शिव मन्त्र के अतिरिक्त अन्य मन्त्रों की दीक्षा से सम्पन्न भक्तों के लिये शिव नैवेद्य ग्रहण विधि का वर्णन किया गया है।

अन्य दीक्षा युत नृणां शिवभक्ति रतात्मनाम् ।

चण्डाधिकारो यत्रास्ति तद्भोक्तव्यं न मानवैः ।।

जो शिवजी से भिन्न दूसरे देवता की दीक्षा से युक्त हैं और शिव भक्ति में भी जिनका मन लगा हुआ है ऐसे मनुष्यों को वह शिव नैवेद्य नहीं खाना चाहिये जिस पर भगवान् शङ्कर के गण चण्ड का अधिकार है । अर्थात् जहाँ चण्ड का अधिकार नहीं है ऐसे शिव नैवेद्य सभी भगवद्भक्त मनुष्य खायें तो कोई दोष नहीं है। अब यह बताते हैं कि चण्ड का अधिकार कहाँ नहीं होता है।

बाण लिङ्गे च लौहे च सिद्ध लिङ्गे स्वयंभुवि ।

प्रतिमासु च सर्वासु न चण्डोsधिकृतो भवेत् ।। 

नर्मदेश्वर, स्वर्ण लिंग, किसी सिद्ध पुरुष द्वारा स्थापित शिव लिंग, स्वयं प्रगट होने वाले शिव लिंग में तथा शङ्कर जी की सम्पूर्ण प्रतिमाओं के नैवेद्य पर चण्ड का अधिकार नहीं होता है अतः इन शिव लिंगो पर चढ़ा हुआ प्रसाद शिवभक्त ग्रहण कर सकता है।

जिन शिवलिंग के नैवेद्य पर चण्ड का अधिकार है वहाँ भी यह व्यवस्था है 

लिङ्गोपरि च यद् द्रव्यं तदग्राह्यं मुनीश्वराः ।

सुपवित्रं च तज्ज्ञेयं यल्लिङ्ग स्पर्श बाह्यतः ।। 

हे मुनीश्वरों शिव लिंग के ऊपर जो द्रव्य चढ़ा दिया जाता है उसे ग्रहण नहीं करना चाहिये जो द्रव्य प्रसाद शिव लिंग स्पर्श से बाहर होता है अर्थात् शिव लिंग के समीप रख कर जो अर्पण किया जाता है भोग लगाया जाता है उसको विशेष रूप से पवित्र समझना चाहिये अतः ऐसे शिव नैवेद्यको सभी मनुष्य ग्रहण कर सकते हैं

ऐसे परम कल्याण ओर अभय के दाता औधरदानी आशुतोषक आराधन जीव मात्र के लिए सहज ओर मंगल दायक माना गया है।

बिना किसी भय या भ्रांति के शिव पूजन यजन आराधन कर भाव से प्रसाद जरूर ग्रहण करे। 

ॐ नमःशिवाय  

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