किस देवता या देवी को कौन सा प्रसाद चढ़ाना चाहिये ? 

‘पत्रं, पुष्पं, फलं, तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:।’

अर्थ: जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप में प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूं। श्रीकृष्ण

पूजा-पाठ या आरती के बाद तुलसीकृत जलामृत व पंचामृत के बाद बांटे जाने वाले पदार्थ को ‘प्रसाद’ कहते हैं। पूजा के समय जब कोई खाद्य सामग्री देवी-देवताओं के समक्ष प्रस्तुत की जाती है तो वह सामग्री प्रसाद के रूप में वितरण होती है। इसे ‘नैवेद्य’ भी कहते हैं।

मनमाने प्रसाद 

हिन्दू धर्म में मंदिर में या किसी देवी या देवता की मूर्ति के समक्ष प्रसाद चढ़ाने की प्राचीनकाल से ही परंपरा रही है। यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है कि किस देवता को चढ़ता है कौन-सा प्रसाद। आजकल लोग कुछ भी लेकर आ जाते हैं और भगवान को चढ़ा देते हैं, जबकि यह अनुचित है। यह तर्क देना कि ‘देवी या देवता तो भाव के भूखे होते हैं, प्रसाद के नहीं’, ‍उचित नहीं है।

 

आजकल मनमानी पूजा और मनमाने त्योंहार भी बहुत प्रचलन में आ गए हैं। प्राचीन उत्सवों को फिल्मी लुक दे दिया गया है। गरबों में डिस्को डांडिया होने लगा है, जो कि धर्म-विरुद्ध कर्म है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि किस देवता को चढ़ता है किस चीज का प्रसाद जिससे कि वे प्रसन्न होंगे। 

प्रसाद चढ़ाने का प्रचलन कब शुरू हुआ ?

यज्ञ की आहुति भी देवता का प्रसाद है :प्रसाद चढ़ावे को नैवेद्य, आहुति और हव्य से जोड़कर देखा जाता रहा है, लेकिन प्रसाद को प्राचीनकाल से ही ‘नैवेद्य’ कहते हैं, जो कि शुद्ध और सात्विक अर्पण होता है। इसका संबंध किसी बलि आदि से नहीं होता। हवन की अग्नि को अर्पित किए गए भोजन को ‘हव्य’ कहते हैं। यज्ञ को अर्पित किए गए भोजन को ‘आहुति’ कहा जाता है। दोनों का अर्थ एक ही होता है। हवन किसी देवी-देवता के लिए और यज्ञ किसी खास मकसद के लिए।

प्राचीनकाल से ही प्रत्येक हिन्दू भोजन करते वक्त उसका कुछ हिस्सा देवी-देवताओं को समर्पित करते आया है। यज्ञ के अलावा वह घर-परिवार में भोजन का एक हिस्सा अग्नि को समर्पित करता था। अग्नि उस हिस्से को देवताओं तक पहुंचा देती थी। चढा़ए जाने के उपरांत नैवेद्य द्रव्य ‘निर्माल्य’ कहलाता है। 

यज्ञ, हवन, पूजा और अन्न ग्रहण करने से पहले भगवान को नैवेद्य एवं भोग अर्पण की शुरुआत वैदिक काल से ही रही है। ‘शतपत ब्राह्मण’ ग्रंथ में यज्ञ को साक्षात भगवान का स्वरूप कहा गया है। यज्ञ में यजमान सर्वश्रेष्ठ वस्तुएं हविरूप से अर्पण कर देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता है।

शास्त्रों में विधान है कि यज्ञ भोजन पहले दूसरों को खिलाकर यजमान ग्रहण करेंगे। वेदों के अनुसार यज्ञ में हृविष्यान्न और नैवेद्य समर्पित करने से व्यक्ति देवऋण से मुक्त होता है। प्राचीन समय में यह नैवेद्य (भोग) अग्नि में आहुति रूप में ही दिया जाता था, लेकिन अब इसका स्वरूप थोड़ा-सा बदल गया है।

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गुड़-चने के प्रसाद का प्रचलन ऐसे हुआ शुरू

देवर्षि नारद भगवान विष्णु से आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे लेकिन जब भी वे विष्णुजी के पास जाते तो विष्‍णुजी कहते कि पहले उन्हें इस ज्ञान के योग्य बनना होगा। तब नारदजी ने कठोर तप किया लेकिन फिर भी बात नहीं बनी तब वे चल पड़े धरती की ओर। धरती पर उन्होंने एक मंदिर में साक्षात विष्णु को बैठे हुए देखा कि एक बूढ़ी महिला उन्हें अपने हाथों से कुछ खिला रही है। नारदजी ने विष्णुजी के जाने के बाद उस बूढ़ी महिला से पूछा कि उन्होंने नारायण को क्या खिलाया? तब उन्हें पता चला कि गुड़-चने का प्रसाद उन्होंने ग्रहण किया था। कहते हैं कि नारद तब वहां रुककर तप और व्रत करने लगे और गुड़-चने का प्रसाद सभी को बांटने लगे।

एक दिन नारायण स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने नारद से कहा कि सच्ची भक्ति वाला ही ज्ञान का अधिकारी होता है। भगवान विष्णु ने उस बूढ़ी महिला को वैकुंठ धाम जाने का आशीर्वाद दिया और कहा कि जब भी कोई भक्त गुड़ और चना अर्पित करेगा उसकी मनोकामना निश्चित ही पूरी होगी। माना जाता है कि तभी से सभी ऋषि, मुनि और भक्त अपने इष्ट को गुड़ और चने का प्रसाद चढ़ाकर प्रसन्न करते आ रहे हैं।

प्रचलित प्रसाद: गुड़-चना, चना-मिश्री, नारियल-मिठाई, लड्डू, फल, दूध और सूखे मेवे।

 

विष्णु भोग

विष्णुजी को खीर या सूजी के हलवे का नैवेद्य बहुत पसंद है। खीर कई प्रकार से बनाई जाती है। खीर में किशमिश, बारीक कतरे हुए बादाम, बहुत थोड़ी-सी नारियल की कतरन, काजू, पिस्ता, चारौजी, थोड़े से पिसे हुए मखाने, सुगंध के लिए एक इलायची, कुछ केसर और अंत में तुलसी जरूर डालें। उसे उत्तम प्रकार से बनाएं और फिर विष्णुजी को भोग लगाने के बाद वितरित करें।

भारतीय समाज में हलवे का बहुत महत्व है। कई तरह के हलवे बनते हैं लेकिन सूजी का हलवा विष्णुजी को बहुत प्रिय है। सूजी के हलवे में भी लगभग सभी तरह के सूखे मेवे मिलाकर उसे भी उत्तम प्रकार से बनाएं और भगवान को भोग लगाएं।

प्रति रविवार और गुरुवार को विष्णु-लक्ष्मी मंदिर में जाकर विष्णुजी को उक्त उत्तम प्रकार का भोग लगाने से दोनों प्रसन्न होते हैं और उसके घर में किसी भी प्रकार से धन और समृद्धि की कमी नहीं होती है।

 

शिव भोग

शिव को भांग और पंचामृत का नैवेद्य पसंद है। भोले को दूध, दही, शहद, शकर, घी, जलधारा से स्नान कराकर भांग-धतूरा, गंध, चंदन, फूल, रोली, वस्त्र अर्पित किए जाते हैं। शिवजी को रेवड़ी, चिरौंजी और मिश्री भी अर्पित की जाती है।

श्रावण मास में शिवजी का उपवास रखकर उनको गुड़, चना और चिरौंजी के अलावा दूध अर्पित करने से सभी तरह की मनोकामना पूर्ण होती है।

 

श्री हनुमान भोग

हनुमानजी को हलुआ, पंच मेवा, गुड़ से बने लड्डू या रोठ, डंठल वाला पान और केसर- भात बहुत पसंद हैं। इसके अलावा हनुमानजी को कुछ लोग इमरती भी अर्पित करते हैं।

कोई व्यक्ति 5 मंगलवार कर हनुमानजी को चोला चढ़ाकर यह नैवेद्य लगाता है, तो उसके हर तरह के संकटों का अविलंब समाधान होता है।

 

माँ लक्ष्मी भोग

लक्ष्मीजी को धन की देवी माना गया है। कहते हैं कि अर्थ बिना सब व्यर्थ है। लक्ष्मीजी को प्रसन्न करने के लिए उनके प्रिय भोग को लक्ष्मी मंदिर में जाकर अर्पित करना चाहिए।

लक्ष्मीजी को सफेद और पीले रंग के मिष्ठान्न, केसर-भात बहुत पसंद हैं। कम से कम 11 शुक्रवार को जो कोई भी व्यक्ति एक लाल फूल अर्पित कर लक्ष्मीजी के मंदिर में उन्हें यह भोग लगाता है तो उसके घर में हर तरह की शांति और समृद्धि रहती है। किसी भी प्रकार से धन की कमी नहीं रहती।

 

माँ दुर्गा भोग

माता दुर्गा को शक्ति की देवी माना गया है। दुर्गाजी को खीर, मालपुए, मीठा हलुआ, पूरणपोळी, केले, नारियल और मिष्ठान्न बहुत पसंद हैं। नवरात्रि के मौके पर उन्हें प्रतिदिन इसका भोग लगाने से हर तरह की मनोकामना पूर्ण होती है, खासकर माताजी को सभी तरह का हलुआ बहुत पसंद है।

बुधवार और शुक्रवार के दिन दुर्गा मां को विशेषकर नेवैद्या अर्पित किया जाता है। माताजी के प्रसन्न होने पर वह सभी तरह के संकट को दूर कर व्यक्ति को संतान और धन सुख देती है। यदि आप माता के भक्त हैं तो बुधवार और शुक्रवार को पवित्र रहकर माताजी के मंदिर जाएं और उन्हें ये भोग अर्पित करें।

 

सरस्वती भोग

माता सरस्वती को ज्ञान की देवी माना गया है। ज्ञान कई तरह का होता है। स्मृतिदोष है तो ज्ञान किसी काम का नहीं। ज्ञान को व्यक्त करने की क्षमता नहीं है, तब भी ज्ञान किसी काम का नहीं। ज्ञान और योग्यता के बगैर जीवन में उन्नति संभव नहीं। अत: माता सरस्वती के प्रति श्रद्धा होना जरूरी है।

माता सरस्वती को दूध, पंचामृत, दही, मक्खन, सफेद तिल के लड्डू तथा धान का लावा पसंद है। सरस्वतीजी को यह किसी मंदिर में जाकर ‍अर्पित करना चाहिए, तो ही ज्ञान और योग्यता का विकास होगा।

 

श्रीगणेश भोग

गणेशजी को मोदक या लड्डू का नैवेद्य अच्छा लगता है। मोदक भी कई तरह के बनते हैं। महाराष्ट्र में खासतौर पर गणेश पूजा के अवसर पर घर-घर में तरह-तरह के मोदक बनाए जाते हैं।

मोदक के अलावा गणेशजी को मोतीचूर के लड्डू भी पसंद हैं। शुद्ध घी से बने बेसन के लड्डू भी पसंद हैं। इसके अलावा आप उन्हें बूंदी के लड्डू भी अर्पित कर सकते हैं। नारियल, तिल और सूजी के लड्डू भी उनको अर्पित किए जाते हैं। 

 

श्रीराम और श्रीकृष्ण का नैवेद्य

श्रीराम भोग 

भगवान श्रीरामजी को केसर भात, खीर, धनिए का भोग आदि पसंद हैं। इसके अलावा उनको कलाकंद, बर्फी, गुलाब जामुन का भोग भी प्रिय है।

 

श्रीकृष्ण भोग

भगवान श्रीकृष्ण को माखन और मिश्री का नैवेद्य बहुत पसंद है। इसके अलावा खीर, हलुआ, पूरनपोळी, लड्डू और सिवइयां भी उनको पसंद हैं। 

 

कालिका और भैरव भोग

माता कालिका और भगवान भैरवनाथ को लगभग एक जैसा ही भोग लगता है। हलुआ, पूरी और मदिरा उनके प्रिय भोग हैं। किसी अमावस्या के दिन काली या भैरव मंदिर में जाकर उनकी प्रिय वस्तुएं अर्पित करें। इसके अलावा इमरती, जलेबी और 5 तरह की मिठाइयां भी अर्पित की जाती हैं।

10 महाविद्याओं में माता कालिका का प्रथम स्थान है। गूगल से धूप दीप देकर, नीले फूल चढ़ाकर काली माता को काली चुनरी अर्पित करें और फिर काजल, उड़द, नारियल और पांच फल चढ़ाएं। कुछ लोग उनके समक्ष मदिरा अर्पित करते हैं। इसी तरह कालभैरव के मंदिर में मदिरा अर्पित की जाती है। 

 

नैवेद्य चढ़ाए जाने के नियम 

1. नमक, मिर्च और तेल का प्रयोग नैवेद्य में नहीं किया जाता है।

2. नैवेद्य में नमक की जगह मिष्ठान्न रखे जाते हैं।

3. प्रत्येक पकवान पर तुलसी का एक पत्ता रखा जाता है।

4. नैवेद्य की थाली तुरंत भगवान के आगे से हटाना नहीं चाहिए।

5. शिवजी के नैवेद्य में तुलसी की जगह बेल और गणेशजी के नैवेद्य में दूर्वा रखते हैं। 

6. नैवेद्य देवता के दक्षिण भाग में रखना चाहिए।

7. कुछ ग्रंथों का मत है कि पक्व नैवेद्य देवता के बाईं तरफ तथा कच्चा दाहिनी तरफ रखना चाहिए। 

8. भोग लगाने के लिए भोजन एवं जल पहले अग्नि के समक्ष रखें। फिर देवों का आह्वान करने के लिए जल छिड़कें।

9. तैयार सभी व्यंजनों से थोड़ा-थोड़ा हिस्सा अग्निदेव को मंत्रोच्चार के साथ स्मरण कर समर्पित करें। अंत में देव आचमन के लिए मंत्रोच्चार से पुन: जल छिड़कें और हाथ जोड़कर नमन करें।

10. भोजन के अंत में भोग का यह अंश गाय, कुत्ते और कौए को दिया जाना चाहिए।

11. पीतल की थाली या केले के पत्ते पर ही नैवेद्य परोसा जाए।

 देवता को निवेदित करना ही नैवेद्य है। सभी प्रकार के प्रसाद में निम्न पदार्थ प्रमुख रूप से रखे जाते हैं- दूध-शकर, मिश्री, शकर-नारियल, गुड़-नारियल, फल, खीर, भोजन इत्यादि पदार्थ।

 

नैवेद्य अर्पित कर उसे प्रसाद रूप में खाने के फायदे

1. मन और मस्तिष्क को स्वच्छ, निर्मल और सकारात्मक बनाने के लिए हिन्दू धर्म में कई रीति-रिवाज, परंपरा और उपाय निर्मित किए गए हैं। सकारात्मक भाव से मन शांतचित्त रहता है। शांतचित्त मन से ही व्यक्ति के जीवन के संताप और दुख मिटते हैं।

2. लगातार प्रसाद वितरण करते रहने के कारण लोगों के मन में भी आपके प्रति अच्छे भावों का विकास होता है। इससे किसी के भी मन में आपके प्रति राग-द्वेष नहीं पनपता और आपके मन में भी उसके प्रति प्रेम रहता है।

3. लगातार भगवान से जुड़े रहने से चित्त की दशा और दिशा बदल जाती है। इससे दिव्यता का अनुभव होता है और जीवन के संकटों में आत्मबल प्राप्त होता है। देवी और देवता भी संकटों के समय साथ खड़े रहते हैं।

4. भजन, कीर्तन, नैवेद्य आदि धार्मिक कर्म करने से जहां भगवान के प्रति आस्था बढ़ती है वहीं शांति और सकारात्मक भाव का अनुभव होता रहता है। इससे इस जीवन के बाद भगवान के उस धाम में भगवान की सेवा की प्राप्ति होती है और अगला जीवन और भी अच्छे से शांति व समृद्धिपूर्वक व्यतीत होता है।

 श्रीमद् भगवद् गीता (7/23) के अनुसार अंत में हमें उन्हीं देवी-देवताओं के स्वर्ग इत्यादि धामों में वास मिलता है जिसकी हम आराधना करते रहते हैं।

श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन के माध्यम से हमें यह भी बताते हैं कि देवी-देवताओं के धाम जाने के बाद फिर पुनर्जन्म होता है अर्थात देवी-देवताओं का भजन करने से, उनका प्रसाद खाने से व उनके धाम तक पहुंचने पर भी जन्म-मृत्यु का चक्र खत्म नहीं होता है। (श्रीगीता 8/16) 

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डिसक्लेमर

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