सुख, शांति, वैभव और लक्ष्मी प्राप्ति के लिए श्री वैभव लक्ष्मी व्रत करने का नियम

यह व्रत सौभाग्यशाली स्त्रियां करें तो उनका अति उत्तम फल मिलता है, पर घर में यदि सौभाग्यशाली स्त्रियां न हों तो कोई भी स्त्री एवं कुमारिका भी यह व्रत कर सकती है। स्त्री के बदले पुरुष भी यह व्रत करें तो उसे भी उत्तम फल अवश्य मिलता है। खिन्न होकर या बिना भाव से यह व्रत नहीं करना चाहिए।

यह व्रत किसी भी मास के शुल्क पक्ष प्रथम शुक्रवार से आरम्भ किया जाता है। व्रत शुरु करते वक्त 11 या 21 शुक्रवार का संकल्प करना चाहिये और बताई गई शास्त्रीय विधि अनुसार ही व्रत करना चाहिए। संकल्प के शुक्रवार पूरे होने पर विधिपूर्वक और बताई गई शास्त्रीय रीति के अनुसार उद्यापन करना चाहिए।

माता लक्ष्मी देवी के अनेक स्वरूप हैं। उनमें उनका ‘धनलक्ष्मी’ स्वरूप ही ‘वैभवलक्ष्मी’ है और माता लक्ष्मी को श्रीयंत्र अति प्रिय है। व्रत करते समय माता लक्ष्मी के विविध स्वरूप यथा श्रीगजलक्ष्मी, श्री अधिलक्ष्मी, श्री विजयलक्ष्मी, श्री ऐश्वर्यलक्ष्मी, श्री वीरलक्ष्मी, श्री धान्यलक्ष्मी एवं श्री संतानलक्ष्मी तथा श्रीयंत्र को प्रणाम करना चाहिए।

व्रत के दिन अधिक से अधिक ‘जय माँ लक्ष्मी’, ‘जय माँ लक्ष्मी’ का मन ही मन उच्चारण (अजपाजाप) करना चाहिए और माँ का पूरे भाव से स्मरण करना चाहिए।

शुक्रवार के दिन यदि आप प्रवास या यात्रा पर गये हों तो वह शुक्रवार छोड़कर उनके बाद के शुक्रवार को व्रत करना चाहिए अर्थात् व्रत अपने ही घर में करना चाहिए। कुल मिलाकर जितने शुक्रवार का संकल्प किया हो, उतने शुक्रवार पूरे करने चाहिए।

घर में सोना न हो तो चाँदी की चीज पूजा में रखनी चाहिए। अगर वह भी न हो तो नगद रुपया रखना चाहिए।व्रत पूरा होने पर कम से कम सात स्त्रियों को या आपकी इच्छा अनुसार जैसे 11, 21, 51 या 101 स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत की पुस्तक कुमकुम का तिलक करके भेंट के रूप में देनी चाहिए। जितनी ज्यादा पुस्तक आप देंगे उतनी माँ लक्ष्मी की ज्यादा कृपा होगी और माँ लक्ष्मी जी के इस अद्भुत व्रत का ज्यादा प्रचार होगा।

व्रत के शुक्रवार को स्त्री रजस्वला हो या सूतकी हो तो वह शुक्रवार छोड़ देना चाहिए और बाद के शुक्रवार से व्रत शुरु करना चाहिए। पर जितने शुक्रवार की मन्नत मानी हो, उतने शुक्रवार पूरे करने चाहिए।

व्रत के दिन हो सके तो उपवास करना चाहिए और शाम को व्रत की विधि करके माँ का प्रसाद लेकर व्रत करना चाहिए। अगर न हो सके तो फलाहार या एक बार भोजन कर के शुक्रवार का व्रत रखना चाहिए। अगर व्रतधारी का शरीर बहुत कमजोर हो तो ही दो बार भोजन ले सकते हैं। सबसे महत्व की बात यही है कि व्रतधारी माँ लक्ष्मी जी पर पूरी-पूरी श्रद्धा और भावना रखे और ‘मेरी मनोकामना माँ पूरी करेंगी ही’, ऐसा दृढ़ विश्वास रखकर व्रत करे।

श्री वैभव लक्ष्मी व्रत पूजा विधि

व्रत वाले दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करके लाल वस्त्र पहनें और अपने घर की पूर्व दिशा में माता वैभव लक्ष्मी जी की मूर्ति या चित्र और साथ ही श्री यन्त्र भी स्थापित करें।

इस दिन माता लक्ष्मी के विविध स्वरूपों श्री वीरलक्ष्मी, श्री विजयलक्ष्मी, श्रीगजलक्ष्मी, श्री अधिलक्ष्मी, श्री ऐश्वर्यलक्ष्मी, श्री धान्यलक्ष्मी एवं श्री संतानलक्ष्मी तथा श्रीयंत्र की पूजा करनी चाहिए इसलिए चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर सभी रूपों के चित्र लगाएँ।

चौकी पर ही अक्षत रखें और उन पर जल से भरा हुआ ताँबे का कलश रखें।

कलश के उपर कटोरी में सोने या चाँदी या कोई सिक्का रखकर कलश को ढक दें।

अब एक देसी घी का दीपक जलाएं और माता को फूल माला, रोली, मौली, सिंदूर आदि चढ़ाएं और सोना, चांदी पर हल्दी कुमकुम लगाएँ और चावल चढ़ाएं।

माता वैभव लक्ष्मी व्रत की कथा पढ़ें और श्री सूक्त, ललिता सहस्त्रनाम अथवा लक्ष्मी स्तवन का पाठ करें। अष्ट लक्ष्मी माताओ के चित्र उपलब्ध ना हो तो श्रीयंत्र के पूजन से भी व्रत के पूजन का लाभ मिल जाता है।संभव हो तो इस दिन श्रीयंत्र पर सहस्त्रार्चन (अक्षत और कुमकुम छोड़ते हुए माता के 1000 नामो का उच्चारण) करना चाहिये।

उसके बाद अंत में माता जी की आरती करें। 

इसके बाद फल तथा खीर प्रसाद का भोग लगाएँ। 

व्रत के उपरांत सोना, चांदी अपने पास रख लें और अक्षत पक्षियों को डाल दें तथा कलश का जल किसी पवित्र पौधे में दाल दें।

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वैभव लक्ष्मी व्रत की पूजा सामग्री 

हल्दी, कुमकुम, बैठने के लिये आसन, अक्षत, सोना या चाँदी या रुपया, धूप, दीपक, लाल फूल, श्री वैभव लक्ष्मी का चित्र, श्री अधिलक्ष्मी का चित्र, श्री विजयलक्ष्मी या अष्टलक्ष्मी का चित्र, श्री ऐशवर्यलक्ष्मी का चित्र, श्री वीर लक्ष्मी का चित्रश्री , श्री धान्य लक्ष्मी का चित्र, श्री गज लक्ष्मी का चित्र, श्री धन लक्ष्मी का चित्र, श्री संतान लक्ष्मी का चित्र, श्री यंत्र अथवा उसका चित्र, लकड़ी की चौकी, लाल कपड़ा, ताँबे का कलश, शुद्ध देसी घी, कटोरी (कलश को ढ़कने के लिये), नैवेद्य (खीर), फल।

वैभव लक्ष्मी एवं उद्यापन की वैदिक पूजा विस्तृत विधि

वैभव लक्ष्मी व्रत का उद्यापन 

जब आपके द्वारा संकल्प किए गए व्रतों की संख्या पूरी हो जाए तो व्रत के अंतिम शुक्रवार को व्रत का उद्यापन करें। यदि संभव हो तो शुक्ल पक्ष में ही उद्यापन कराए। उद्यापन करने के बाद यदि आप कोई और मन्नत माँगना चाहते हैं या आप दोबारा यह व्रत करना चाहते हैं तो कुछ समय बाद पुनः इसी प्रकार व्रत रखना प्रारंभ कर सकते हैं। इस व्रत के उद्यापन में व्रत की सामग्री के अतिरिक्त निम्नलिखित सामग्री की आवश्यकता मुख्य रूप से होती है।

नारियल, 7 या 11 या 21 या 51, सौभाग्यवती स्त्रियाँ, वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक (जितनी स्त्रियों को अपने निमंत्रित किया है)

वैभव लक्ष्मी व्रत उद्यापन विधि 

उद्यापन वाले दिन सुबह जल्दी उठे और स्नान कर पवित्र हो जाएँ।

पूजा स्थल को साफ कर गंगा जल से उसे शुद्ध कर लें।

सभी पूजन सामग्री एकत्रित कर लें।

लाल आसन पर पूर्व की ओर मुँह करके बैठ जायें।

चौकी पर लाल वस्त्र बिछायें।

व्रत के दिनों की तरह ही इस दिन भी पूजा करें।

इसके पश्चात माताजी के विभिन्न स्वरूपों को प्रणाम करते हुए उनसे संपर्क कृपा करने की प्रार्थना करें

आखिरी शुक्रवार को प्रसाद के लिए खी‍र बनानी चाहिए। जिस प्रकार हर शुक्रवार को हम पूजन करते हैं, वैसे ही करना चाहिए। पूजन के बाद माँ के सामने एक श्रीफल फोड़ें फिर कम से कम सात‍ कुंआरी कन्याओं या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक लगाकर मां वैभवलक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक की एक-एक प्रति उपहार में देनी चाहिए और सबको खीर का प्रसाद देना चाहिए. इसके बाद माँ लक्ष्मीजी को श्रद्धा सहित प्रणाम करना चाहिए। फिर माताजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करें।

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वैभव लक्ष्मी पूजन

पवित्रीकरण

सर्वप्रथम हाथ में जल लेकर मंत्र के द्वारा अपने ऊपर जल छिड़कें:

ॐ पवित्रः अपवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपिवा।

यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्षं स वाह्यभ्यन्तर शुचिः॥

इसके पश्चात् पूजा कि सामग्री और आसन को भी मंत्र उच्चारण के साथ जल छिड़क कर शुद्ध कर लें:

पृथ्विति मंत्रस्य मेरुपृष्ठः ग षिः सुतलं छन्दः कूर्मोदेवता आसने विनियोगः॥

अब आचमन करें

पुष्प से एक –एक करके तीन बूंद पानी अपने मुंह में छोड़िए और बोलिए-

ॐ केशवाय नमः ॐ नारायणाय नमः ॐ वासुदेवाय नमः

फिर ॐ हृषिकेशाय नमः कहते हुए हाथों को खोलें और अंगूठे के मूल से होंठों को पोंछकर हाथों को धो लें।

गणेश पूजन 

इसके बाद सबसे पहले गणेश जी का पूजन पंचोपचार विधि (धूप, दीप, पूष्प, गंध, एवं नैवेद्य) से करें। चौकी के पास हीं किसी पात्र में गणेश जी के विग्रह को रखकर पूजन करें। यदि गणेश जी की मूर्ति उपलब्ध न हो तो सुपारी पर मौली लपेट कर गणेश जी बनायें।

संकल्प : 

हाथ में जल, अक्षत, पान का पत्ता, सुपारी और कुछ सिक्के लेकर निम्न मंत्र के साथ उद्यापन का संकल्प करें:‌ 

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। श्री मद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकामने महामांगल्यप्रदे मासानाम्‌ उत्तमे अमुकमासे (जिस माह में व्रत अथवा उद्यापन कर रहे हों, उसका नाम) अमुकपक्षे (जिस पक्ष में व्रत अथवा उद्यापन कर रहे हों, उसका नाम) अमुकतिथौ (जिस तिथि में व्रत अथवा उद्यापन कर रहे हों, उसका नाम) शुक्रवासरान्वितायाम्‌ अमुकनक्षत्रे (व्रत अथवा उद्यापन के दिन, जिस नक्षत्र में सुर्य हो उसका नाम) अमुकराशिस्थिते सूर्ये (व्रत अथवा उद्यापन के दिन, जिस राशिमें सुर्य हो उसका नाम) अमुकामुकराशिस्थितेषु (व्रत अथवा उद्यापन के दिन, जिस –जिस राशि में चंद्र, मंगल,बुध, गुरु शुक, शनि हो उसका नाम) चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः (अपने गोत्र का नाम) अमुक नाम (अपना नाम) अहं वॉभाव लक्ष्मी व्रत अथवा उद्यापन करिष्ये ।

ध्यान

पद्मासनां पद्मकरां पद्ममालाविभूषिताम् क्षीरसागर संभूतां हेमवर्ण – समप्रभाम् ।

क्षीरवर्णसमं वस्त्रं दधानां हरिवल्लभाम्

भावेय भक्तियोगेन भार्गवीं कमलां शुभाम्

सर्वमंगलमांगल्ये विष्णुवक्षःस्थलालये

आवाहयामि देवी त्वां क्षीरसागरसम्भवे

पद्मासने पद्मकरे सर्वलोकैकपूजिते

नारायणप्रिये देवी सुप्रीता भव सर्वदा।

आवाहन

सर्वलोकस्य जननीं सर्वसौख्यप्रदायिनीम्

सर्वदेवमयीमीशां देविमावाहयाम्यम्

ॐ तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्

यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्

ॐ वैभवलक्ष्म्यै नमः वैभवलक्ष्मीमावाहयामि , आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि

आसन

अनेकरत्नसंयुक्तं नानामणिगणान्वितम् । इदं हेममयं दिव्यमासनं परिगृह्यताम ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः आसनार्थे पुष्पं समर्पयाम ।

पाद्य

गङ्गादिसर्वतीर्थेभ्य आनीतं तोयमुत्तमम् । पाद्यार्थं ते प्रदास्यामि गृहाण परमेश्वरी ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः पादयोः पाद्यं समर्पयामि। ( जल चढ़ाये )

अर्ध्य

गन्धपुष्पाक्षतैर्युक्तमर्ध्यं सम्पादितं मया । गृहाण त्वं महादेवि प्रसन्ना भव सर्वदा ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः हस्तयोः अर्ध्यं समर्पयामि।

( चन्दन , पुष्प , अक्षत , जल से युक्त अर्ध्य दे )

आचमन

कर्पूरेण सुगन्धेन वासितं स्वादु शीतलम्। तोयमाचमनीयार्थं गृहाण परमेश्वरी॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः आचमनं समर्पयामि।

( कर्पुर मिला हुआ शीतल जल चढ़ाये )

स्नान

मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरं शुभम्। तदिदं कल्पितं देवी स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः स्नानार्थम जलं समर्पयामि। ( जल चढ़ाये )

वस्त्र 

सर्वभूषादिके सौम्ये लोक लज्जानिवारणे। मयोपपादिते तुभ्यं गृह्यतां वसिसे शुभे ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि, आचमनीयं जलं समर्पयामि ।

( दो मौलि के टुकड़े अर्पित करें एवं एक आचमनी जल अर्पित करें )

चन्दन

श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गन्धाढयं सुमनोहरं। विलेपनं सुरश्रेष्ठे चन्दनं प्रतिगृह्यताम् ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः चन्दनं समर्पयामि । ( मलय चन्दन लगाये )

कुङ्कुम

कुङ्कुमं कामदं दिव्यं कामिनीकामसम्भवम् ।

कुङ्कुमेनार्चिता देवी कुङ्कुमं प्रतिगृह्यताम् ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः कुङ्कुमं समर्पयामि ।

( कुङ्कुम चढ़ाये )

सिन्दूर

सिन्दूरमरुणाभासं जपाकुसुमसन्निभम् ।

अर्पितं ते मया भक्त्या प्रसीद परमेश्वरी ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः सिन्दूरं समर्पयामि ।

( सिन्दूर चढ़ाये )

अक्षत

अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुङ्कुमाक्ताः सुशोभिताः।

मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वरी॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः अक्षतान् समर्पयामि ।

( साबुत चावल चढ़ाये )

आभूषण

हारकङकणकेयूरमेखलाकुण्डलादिभिः । रत्नाढ्यं हीरकोपेतं भूषणं प्रतिगृह्यताम् ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः आभूषणानि समर्पयामि। ( आभूषण चढ़ाये )

पुष्प

माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि भक्तितः। मयाऽह्रतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यतां।

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः पुष्पं समर्पयामि । ( पुष्प चढ़ाये )

दुर्वाङकुर

तृणकान्तमणिप्रख्यहरिताभिः सुजातिभिः। दुर्वाभिराभिर्भवतीं पूजयामि महेश्वरी ॥

श्री वैभव लक्ष्मी देव्यै नमः दुर्वाङ्कुरान समर्पयामि। ( दूब चढ़ाये )

अङ्ग – पूजा

कुङ्कुम, अक्षत, पुष्प से निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुए अङ्ग – पूजा करे।

ॐ चपलायै नमः , पादौ पूजयामि ॐ चञ्चलायै नमः , जानुनी पूजयामि ॐ कमलायै नमः , कटिं पूजयामि ॐ कात्यायन्यै नमः , नाभिं पूजयामि ॐ जगन्मात्रे नमः , जठरं पूजयामि ॐ विश्ववल्लभायै नमः, वक्षः स्थलं पूजयामि ॐ कमलवासिन्यै नमः, हस्तौ पूजयामि ॐ पद्माननायै नमः, मुखं पूजयामि ॐ कमलपत्राक्ष्यै नमः, नेत्रत्रयं पूजयामि ॐ श्रियै नमः, शिरः पूजयामि ॐ महालक्ष्मै नम:, सर्वाङ्गं पूजयामि

अष्टसिद्धि – पूजन 

कुङ्कुम, अक्षत, पुष्प से निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुए आठों दिशाओं में आठों सिद्धियों की पूजा करे।

१ – ॐ अणिम्ने नमः ( पूर्वे )

२- ॐ महिम्ने नमः ( अग्निकोणे )

३ – ॐ गरिम्णे नमः ( दक्षिणे )

४ – ॐ लघिम्णे नमः ( नैर्ॠत्ये )

५ – ॐ प्राप्त्यै नमः ( पश्चिमे )

६ – ॐ प्राकाम्यै नमः ( वायव्ये )

७ – ॐ ईशितायै नमः ( उत्तरे )

८ – ॐ वशितायै नमः ( ऐशान्याम् )

अष्टलक्ष्मी पूजन

कुङ्कुम , अक्षत , पुष्प से निम्नलिखित नाम – मंत्र पढ़ते हुए आठ लक्ष्मियों की पूजा करे

ॐ आद्यलक्ष्म्यै नमः ,  ॐ विद्यालक्ष्म्यै नमः , ॐ सौभाग्यलक्ष्म्यै नमः , ॐ अमृतलक्ष्म्यै , ॐ कामलक्ष्म्यै नमः , ॐ सत्यलक्ष्म्यै नमः , ॐ भोगलक्ष्म्यै नमः ,  ॐ योगलक्ष्म्यै नमः

धूप

वनस्पति रसोद् भूतो गन्धाढ्यो सुमनोहरः। आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः धूपं आघ्रापयामि । ( धूप दिखाये )

दीप

साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया । दीपं गृहाण देवेशि त्रैलोक्यतिमिरापहम् ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः दीपं दर्शयामि ।

नैवैद्य

शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च । आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवैद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः नैवैद्यं निवेदयामि। पुनः आचमनीयं जलं समर्पयामि।

( प्रसाद चढ़ाये एवं इसके बाद आचमनी से जल चढ़ाये )

ऋतुफल

इदं फलं मया देवी स्थापितं पुरतस्तव। तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः ॠतुफलानि समर्पयामि (फल चढ़ाये)

ताम्बूल

पूगीफलं महद्दिव्यम् नागवल्लीदलैर्युतम् । एलालवङ्ग संयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः ताम्बूलं समर्पयामि । (पान चढ़ाये )

दक्षिणा

हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः । अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः दक्षिणां समर्पयामि । (दक्षिणा चढ़ाये)

कर्पूरआरती

॥ कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम् । आरार्तिकमहं कुर्वे पश्य मां वरदो भव ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः आरार्तिकं समर्पयामि। (कर्पूर की आरती करें )

जल शीतलीकरण

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष ( गूं ) शान्ति: , पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: , सर्व ( गूं ) शान्ति: , शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥

मन्त्रपुष्पाञ्जलि

नानासुगन्धिपुष्पाणि यथाकालोद् भवानि च पुष्पाञ्जलिर्मया दत्तो गृहान परमेश्वरि ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः मन्त्रपुष्पाञ्जलिम् समर्पयामि।

नमस्कार मंत्र 

सुरासुरेन्द्रादिकिरीटमौक्तिकैर्युक्तं सदा यत्तव पादपङ्कजम् परावरं पातु वरं सुमङ्गलं नमामि भक्त्याखिलकामसिद्धये

भवानि त्वं महालक्ष्मीः सर्वकामप्रदायिनी सुपूजिता प्रसन्ना स्यान्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते

नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरिप्रिये

या गतिस्त्वत्प्रपन्नानां सा मे भूयात् त्वदर्चनात् श्री महालक्ष्म्यै नम:, प्रार्थनापूर्वकं नमस्कारान् समर्पयामि

लक्ष्मी मन्त्र का जाप अपनी सुविधनुसार करे

॥ ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः ॥

जप समर्पण (दाहिने हाथ में जल लेकर मंत्र बोलें एवं जमीन पर छोड़ दें)

॥ ॐ गुह्यातिगुह्य गोप्ता त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपं, सिद्धिर्भवतु मं देवी त्वत् प्रसादान्महेश्वरि॥

इसके बाद व्रत की कथा पढ़े।

वैभवलक्ष्मी व्रत की कथा 

एक बड़ा शहर था। इस शहर में लाखों लोग रहते थे। पहले के जमाने के लोग साथ-साथ रहते थे और एक दूसरे के काम आते थे। पर नये जमाने के लोगों का स्वरूप ही अलग सा है। सब अपने अपने काम में रत रहते हैं। किसी को किसी की परवाह नहीं। घर के सदस्यों को भी एक-दूसरे की परवाह नहीं होती। भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव, दया-माया, परोपकार जैसे संस्कार कम हो गये हैं। शहर में बुराइयाँ बढ़ गई थी। शराब, जुआ, रेस, व्यभिचार, चोरी-डकैती आदि बहुत से अपराध शहर में होते थे।

कहावत है कि ‘हजारों निराशा में एक अमर आशा छिपी हुई है’ इसी तरह इतनी सारी बुराइयों के बावजूद शहर में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे। ऐसे अच्छे लोगों में शीला और उनके पति की गृहस्थी मानी जाती थी। शीला धार्मिक प्रकृति की और संतोषी थी। उनका पति भी विवेकी और सुशील था। शीला और उनका पति ईमानदारी से जीते थे। वे किसी की बुराई न करते थे और प्रभु भजन में अच्छी तरह समय व्यतीत कर रहे थे। उनकी गृहस्थी आदर्श गृहस्थी थी और शहर के लोग उनकी गृहस्थी की सराहना करते थे।

शीला की गृहस्थी इसी तरह खुशी-खुशी चल रही थी। पर कहा जाता है कि ‘कर्म की गति अकल है’, विधाता के लिखे लेख कोई नहीं समझ सकता है। इन्सान का नसीब पल भर में राजा को रंक बना देता है और रंक को राजा। शीला के पति के अगले जन्म के कर्म भोगने बाकी रह गये होंगे कि वह बुरे लोगों से दोस्ती कर बैठा। वह जल्द से जल्द करोड़पति होने के ख्वाब देखने लगा। इसलिए वह गलत रास्ते पर चल निकला और करोड़पति के बजाय रोड़पति बन गया। याने रास्ते पर भटकते भिखारी जैसी उसकी स्थिति हो गयी थी।

शहर में शराब, जुआ, रेस, चरस-गांजा आदि बदियां फैली हुई थीं। उसमें शीला का पति भी फँस गया। दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई। जल्द से जल्द पैसे वाला बनने की लालच में दोस्तों के साथ रेस जुआ भी खेलने लगा। इस तरह बचाई हुई धनराशि, पत्नी के गहने, सब कुछ रेस-जुए में गँवा दिया था। समय के परिवर्तन के साथ घर में दरिद्रता और भुखमरी फैल गई। सुख से खाने के बजाय दो वक्त के भोजन के लाले पड़ गये और शीला को पति की गालियाँ खाने का वक्त आ गया था।

शीला सुशील और संस्कारी स्त्री थी। उसको पति के बर्ताव से बहुत दुख हुआ। किन्तु वह भगवान पर भरोसा करके बड़ा दिल रख कर दुख सहने लगी। कहा जाता है कि ‘सुख के पीछे दुख और दुख के पीछे सुख आता ही है। इसलिए दुख के बाद सुख आयेगा ही, ऐसी श्रद्धा के साथ शीला प्रभु भक्ति में लीन रहने लगी। इस तरह शीला असह्य दुख सहते-सहते प्रभुभक्ति में वक्त बिताने लगी।

अचानक एक दिन दोपहर में उनके द्वार पर किसी ने दस्तक दी। शीला सोच में पड़ गयी कि मुझ जैसे गरीब के घर इस वक्त कौन आया होगा? फिर भी द्वार पर आये हुए अतिथि का आदर करना चाहिए, ऐसे आर्य धर्म के संस्कार वाली शीला ने खड़े होकर द्वार खोला। देखा तो एक माँ जी खड़ी थी। वे बड़ी उम्र की लगती थीं। किन्तु उनके चेहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था। उनकी आँखों में से मानो अमृत बह रहा था।

उनका भव्य चेहरा करुणा और प्यार से छलकता था। उनको देखते ही शीला के मन में अपार शांति छा गई। वैसे शीला इस माँ जी को पहचानती न थी, फिर भी उनको देखकर शीला के रोम-रोम में आनन्द छा गया। शीला माँ जी को आदर के साथ घर में ले आयी। घर में बिठाने के लिए कुछ भी नहीं था। अतः शीला ने सकुचा कर एक फटी हुई चादर पर उनको बिठाया।

माँ जी ने कहा: ‘क्यों शीला मुझे पहचाना नहीं ?’

शीला ने सकुचा कर कहा: ‘माँ! आपको देखते ही बहुत खुशी हो रही है। बहुत शांति हो रही है। ऐसा लगता है कि मैं बहुत दिनों से जिसे ढूढ़ रही थी वे आप ही हैं, पर मैं आपको पहचान नहीं सकती।’

माँ जी ने हँसकर कहा: ‘क्यों? भूल गई? हर शुक्रवार को लक्ष्मी जी के मंदिर में भजन-कीर्तन होते हैं, तब मैं भी वहाँ आती हूँ। वहाँ हर शुक्रवार को हम मिलते हैं।’

पति गलत रास्ते पर चढ़ गया, तब से शीला बहुत दुखी हो गई थी और दुख की मारी वह लक्ष्मीजी के मंदिर में भी नहीं जाती थी। बाहर के लोगों के साथ नजर मिलाते भी उसे शर्म लगती थी। उसने याददाश्त पर जोर दिया पर वह माँ जी याद नहीं आ रही थीं।

तभी माँ जी ने कहा: ‘तू लक्ष्मी जी के मंदिर में कितने मधुर भजन गाती थी। अभी-अभी तू दिखाई नहीं देती थी, इसलिए मुझे हुआ कि तू क्यों नहीं आती है? कहीं बीमार तो नहीं हो गई है न? ऐसा सोचकर मैं तुझसे मिलने चली आई हूँ।’

माँ जी के अति प्रेम भरे शब्दों से शीला का हृदय पिघल गया। उसकी आँखों में आँसू आ गये। माँ जी के सामने वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। यह देख कर माँ जी शीला के नजदीक आयीं और उसकी सिसकती पीठ पर प्यार भरा हाथ फेर कर सांत्वना देने लगीं।

माँ जी ने कहा: ‘बेटी! सुख और दुख तो धूप छांव जैसे होते हैं। धैर्य रखो बेटी! और तुझे परेशानी क्या है? तेरे दुख की बात मुझे सुना। तेरा मन हलका हो जायेगा और तेरे दुख का कोई उपाय भी मिल जायेगा।’

माँ जी की बात सुनकर शीला के मन को शांति मिली। उसने माँ जी से कहा: ‘माँ! मेरी गृहस्थी में भरपूर सुख और खुशियाँ थीं, मेरे पति भी सुशील थे। अचानक हमारा भाग्य हमसे रूठ गया। मेरे पति बुरी संगति में फँस गये और बुरी आदतों के शिकार हो गये तथा अपना सब-कुछ गवाँ बैठे हैं तथा हम रास्ते के भिखारी जैसे बन गये हैं।’

यह सुन कर माँ जी ने कहा: ‘ऐसा कहा जाता है कि , ‘कर्म की गति न्यारी होती है’, हर इंसान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते हैं। इसलिए तू चिंता मत कर। अब तू कर्म भुगत चुकी है। अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आयेंगे। तू तो माँ लक्ष्मी जी की भक्त है। माँ लक्ष्मी जी तो प्रेम और करुणा की अवतार हैं। वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती हैं। इसलिए तू धैर्य रख कर माँ लक्ष्मी जी का व्रत कर। इससे सब कुछ ठीक हो जायेगा।

‘माँ लक्ष्मी जी का व्रत’ करने की बात सुनकर शीला के चेहरे पर चमक आ गई। उसने पूछा: ‘माँ! लक्ष्मी जी का व्रत कैसे किया जाता है, वह मुझे समझाइये। मैं यह व्रत अवश्य करूँगी।’

माँ जी ने कहा: ‘बेटी! माँ लक्ष्मी जी का व्रत बहुत सरल है। उसे ‘वरदलक्ष्मी व्रत’ या ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ भी कहा जाता है। यह व्रत करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है। वह सुख-सम्पत्ति और यश प्राप्त करता है। ऐसा कहकर माँ जी ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की विधि कहने लगी।

‘बेटी! वैभवलक्ष्मी व्रत वैसे तो सीधा-सादा व्रत है। किन्तु कई लोग यह व्रत गलत तरीके से करते हैं, अतः उसका फल नहीं मिलता। कई लोग कहते हैं कि सोने के गहने की हलदी-कुमकुम से पूजा करो बस व्रत हो गया। पर ऐसा नहीं है। कोई भी व्रत शास्त्रीय विधि से करना चाहिए। तभी उसका फल मिलता है। सच्ची बात यह है कि सोने के गहनों का विधि से पूजन करना चाहिए। व्रत की उद्यापन विधि भी शास्त्रीय विधि से करना चाहिए।

यह व्रत शुक्रवार को करना चाहिए। प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनो और सारा दिन ‘जय माँ लक्ष्मी’ का रटन करते रहो। किसी की चुगली नहीं करनी चाहिए। शाम को पूर्व दिशा में मुँह करके आसन पर बैठ जाओ। सामने पाटा रखकर उस पर रुमाल रखो। रुमाल पर चावल का छोटा सा ढेर करो। उस ढेर पर पानी से भरा तांबे का कलश रख कर, कलश पर एक कटोरी रखो। उस कटोरी में एक सोने का गहना रखो। सोने का न हो तो चांदी का भी चलेगा। चांदी का न हो तो नकद रुपया भी चलेगा। बाद में घी का दीपक जला कर अगरबत्ती सुलगा कर रखो।

माँ लक्ष्मी जी के बहुत स्वरूप हैं। और माँ लक्ष्मी जी को ‘श्रीयंत्र’ अति प्रिय है। अतः ‘वैभवलक्ष्मी’ में पूजन विधि करते वक्त सर्वप्रथम ‘श्रीयंत्र’ और लक्ष्मी जी के विविध स्वरूपों का सच्चे दिल से दर्शन करो। उसके बाद ‘लक्ष्मी स्तवन’ का पाठ करो। बाद में कटोरी में रखे हुए गहने या रुपये को हल्दी-कुमकुम और चावल चढ़ाकर पूजा करो और लाल रंग का फूल चढ़ाओ। शाम को कोई मीठी चीज बना कर उसका प्रसाद रखो। न हो सके तो शक्कर या गुड़ भी चल सकता है। फिर आरती करके ग्यारह बार सच्चे हृदय से ‘जय माँ लक्ष्मी’ बोलो। बाद में ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार यह व्रत करने का दृढ़ संकल्प माँ के सामने करो और आपकी जो मनोकामना हो वह पूरी करने को माँ लक्ष्मी जी से विनती करो। फिर माँ का प्रसाद बाँट दो। और थोड़ा प्रसाद अपने लिए रख लो।

अगर आप में शक्ति हो तो सारा दिन उपवास रखो और सिर्फ प्रसाद खा कर शुक्रवार का व्रत करो। न शक्ति हो तो एक बार शाम को प्रसाद ग्रहण करते समय खाना खा लो। अगर थोड़ी शक्ति भी न हो तो दो बार भोजन कर सकते हैं। बाद में कटोरी में रखा गहना या रुपया ले लो। कलश का पानी तुलसी की क्यारी में डाल दो और चावल पक्षियों को डाल दो। इसी तरह शास्त्रीय विधि से व्रत करने से उसका फल अवश्य मिलता है। इस व्रत के प्रभाव से सब प्रकार की विपत्ति दूर हो कर आदमी मालामाल हो जाता हैं संतान न हो तो संतान प्राप्ति होती है। सौभाग्वती स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रहता है। कुमारी लड़की को मनभावन पति मिलता है।

शीला यह सुनकर आनन्दित हो गई। फिर पूछा: ‘माँ! आपने वैभवलक्ष्मी व्रत की जो शास्त्रीय विधि बताई है, वैसे मैं अवश्य करूंगी। किन्तु उसकी उद्यापन विधि किस तरह करनी चाहिए ? यह भी कृपा करके सुनाइये।’

माँ जी ने कहा: ‘ग्यारह या इक्कीस जो मन्नत मानी हो उतने शुक्रवार यह वैभवलक्ष्मी व्रत पूरी श्रद्धा और भावना से करना चाहिए। व्रत के आखिरी शुक्रवार को खीर का नैवेद्य रखो। पूजन विधि हर शुक्रवार को करते हैं वैसे ही करनी चाहिए। पूजन विधि के बाद श्रीफल फोड़ो और कम से कम सात कुंवारी या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक करके ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की एक-एक पुस्तक उपहार में देनी चाहिए और सब को खीर का प्रसाद देना चाहिए। फिर धनलक्ष्मी स्वरूप, वैभवलक्ष्मी स्वरूप, माँ लक्ष्मी जी की छवि को प्रणाम करें।

माँ लक्ष्मी जी का यह स्वरूप वैभव देने वाला है। प्रणाम करके मन ही मन भावुकता से माँ की प्रार्थना करते वक्त कहें कि , ‘हे माँ धनलक्ष्मी! हे माँ वैभवलक्ष्मी! मैंने सच्चे हृदय से आपका व्रत पूर्ण किया है। तो हे माँ! हमारी मनोकामना पूर्ण कीजिए। हमारा सबका कल्याण कीजिए। जिसे संतान न हो उसे संतान देना। सौभाग्यशाली स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रखना। कुंवारी लड़की को मनभावन पति देना। आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत जो करे उसकी सब विपत्ति दूर करना। सब को सुखी करना। हे माँ! आपकी महिमा अपरम्पार है।’

माँ जी के पास से वैभवलक्ष्मी व्रत की शास्त्रीय विधि सुनकर शीला भावविभोर हो उठी। उसे लगा मानो सुख का रास्ता मिल गया। उसने आँखें बंद करके मन ही मन उसी क्षण संकल्प लिया कि, ‘हे वैभवलक्ष्मी माँ! मैं भी माँ जी के कहे अनुसार श्रद्धापूर्वक शास्त्रीय विधि से वैभवलक्ष्मी व्रत इक्कीस शुक्रवार तक करूँगी और व्रत की शास्त्रीय रीति के अनुसार उद्यापन भी करूँगी।

शीला ने संकल्प करके आँखें खोली तो सामने कोई न था। वह विस्मित हो गई कि माँ जी कहां गयी? यह माँ जी कोई दूसरा नहीं साक्षात लक्ष्मी जी ही थीं। शीला लक्ष्मी जी की भक्त थी इसलिए अपने भक्त को रास्ता दिखाने के लिए माँ लक्ष्मी देवी माँ जी का स्वरूप धारण करके शीला के पास आई थीं।

दूसरे दिन शुक्रवार था। प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहन कर शीला मन ही मन श्रद्धा और पूरे भाव से ‘जय माँ लक्ष्मी’ का मन ही मन रटन करने लगी। सारा दिन किसी की चुगली नहीं की। शाम हुई तब हाथ-पांव-मुंह धो कर शीला पूर्व दिशा में मुंह करके बैठी। घर में पहले तो सोने के बहुत से गहने थे पर पति ने गलत रास्ते पर चलकर सब गिरवी रख दिये। पर नाक की कील (पुल्ली) बच गई थी। नाक की कील निकाल कर, उसे धोकर शीला ने कटोरी में रख दी। सामने पाटे पर रुमाल रख कर मुठ्ठी भर चावल का ढेर किया। उस पर तांबे का कलश पानी भरकर रखा। उसके ऊपर कील वाली कटोरी रखी। फिर विधिपूर्वक वंदन, स्तवन, पूजन वगैरह किया और घर में थोड़ी शक्कर थी, वह प्रसाद में रख कर वैभवलक्ष्मी व्रत किया।

यह प्रसाद पहले पति को खिलाया। प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया। उस दिन उसने शीला को मारा नहीं, सताया भी नहीं। शीला को बहुत आनन्द हुआ। उसके मन में वैभवलक्ष्मी व्रत के लिए श्रद्ध बढ़ गई।

शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक व्रत किया। इक्कीसवें शुक्रवार को विधिपूर्वक उद्यापन विधि करके सात स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत की सात पुस्तकें उपहार में दीं। फिर माता जी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छवि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगी: ‘हे माँ धनलक्ष्मी! मैंने आपका वैभवलक्ष्मी व्रत करने की मन्नत मानी थी वह व्रत आज पूर्ण किया है। हे माँ! मेरी हर विपत्ति दूर करो। हमारा सबका कल्याण करो। जिसे संतान न हो, उसे संतान देना। सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रखना। कुंवारी लड़की को मनभावन पति देना। जो कोई आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उसकी सब विपत्ति दूर करना। सब को सुखी करना। हे माँ! आपकी महिमा अपार है।’ ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के धनलक्ष्मी स्वरूप की छवि को प्रणाम किया।

इस तरह शास्त्रीय विधि से शीला ने श्रद्धा से व्रत किया और तुरन्त ही उसे फल मिला। उसका पति सही रास्ते पर चलने लगा और अच्छा आदमी बन गया तथा कड़ी मेहनत से व्यवसाय करने लगा। धीरे धीरे समय परिवर्तित हुआ और उसने शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ा लिए। घर में धन की बाढ़ सी आ गई। घर में पहले जैसी सुख-शांति छा गई।

वैभवलक्ष्मी व्रत का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियाँ भी शास्त्रीय विधि से वैभवलक्ष्मी का व्रत करने लगीं। हे माँ धनलक्ष्मी! आप जैसे शीला पर प्रसन्न हुईं, उसी तरह आपका व्रत करने वाले सब पर प्रसन्न होना। सबको सुख-शांति देना। जय धनलक्ष्मी माँ जय वैभवलक्ष्मी माँ

बोलो भगवती महालक्ष्मी की जय कथा सुनने के बाद माता जी की आरती करें।

श्री लक्ष्मी जी की आरती 

ॐ जय लक्ष्मी माता , मैया जय लक्ष्मी माता ।

तुमको निसिदिन सेवत हर – विष्णू – धाता ॥ ॐ जय ॥

उमा , रमा , ब्रह्माणी , तुम ही जग – माता

सूर्य – चन्द्रमा ध्यावत , नारद ऋषि गाता ॥ ॐ जय ॥

दुर्गारुप निरञ्जनि , सुख – सम्पति – दाता

जो कोइ तुमको ध्यावत , ऋधि – सिधि – धन पाता ॥ ॐ जय ॥

तुम पाताल – निवासिनि , तुम ही शुभदाता

कर्म – प्रभाव -प्रकाशिनि , भवनिधिकी त्राता ॥ ॐ जय ॥

जिस घर तुम रहती , तहँ सब सद् गुण आता

सब सम्भव हो जाता , मन नहिं घबराता ॥ ॐ जय ॥

तुम बिन यज्ञ न होते , वस्त्र न हो पाता

खान – पान का वैभव सब तुमसे आता ॥ ॐ जय ॥

शुभ – गुण – मन्दिर सुन्दर , क्षीरोदधि – जाता

रत्न चतुर्दश तुम बिन कोइ नहि पाता ॥ ॐ जय ॥

महालक्ष्मी जी कि आरति , जो कोई नर गाता

उर आनन्द समाता , पाप उतर जाता ॥ ॐ जय ॥

क्षमा – याचना मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि। यत्युजितं मया देवी परिपूर्ण तदस्तु मे॥ श्री महालक्ष्म्यै नमः क्षमायाचनां समर्पयामि

ना तो मैं आवाहन करना जानता हूँ , ना विसर्जन करना जानता हूँ और ना पूजा करना हीं जानता हूँ । हे परमेश्वरी क्षमा करें । हे परमेश्वरी मैंने जो मंत्रहीन , क्रियाहीन और भक्तिहीन वैभवलक्ष्मी व्रत और पूजन किया है , वह सब आपकी दया से पूर्ण हो ।

ॐ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु।

 

संतोषी माता का व्रत विधि और लाभ

शुक्रवार का व्रत तीन तरह से किया जाता है। इस दिन भगवान शुक्र के साथ-साथ संतोषी माता तथा वैभवलक्ष्मी देवी का भी पूजन किया जाता है। तीनों व्रतों की विधियां अलग-अलग हैं। जो स्त्री-पुरुष शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत करते हैं, उनके लिए व्रत-विधि इस प्रकार है।

संतोषी माता व्रत विधि

सूर्योदय से पूर्व उठें।

घर की सफाई कर स्नानादि से निवृत्त हो जाएं।

घर के ही किसी पवित्र स्थान पर संतोषी माता की मूर्ति या चित्र स्थापित करें।

संपूर्ण पूजन सामग्री तथा किसी बड़े पात्र में शुद्ध जल भरकर रखें।

जल भरे पात्र पर गुड़ और चने से भरकर दूसरा पात्र रखें।

संतोषी माता की विधि-विधान से पूजा करें।

इसके पश्चात संतोषी माता की कथा सुनें।

तत्पश्चात आरती कर सभी को गुड़-चने का प्रसाद बांटें।

अंत में बड़े पात्र में भरे जल को घर में जगह-जगह छिड़क दें तथा शेष जल को तुलसी के पौधे में डाल दें।

इसी प्रकार 16 शुक्रवार का नियमित उपवास रखें

अंतिम शुक्रवार को व्रत का विसर्जन करें।

विसर्जन के दिन उपरोक्त विधि से संतोषी माता की पूजा कर 8 बालकों को खीर-पुरी का भोजन कराएँ तथा दक्षिणा व केले का प्रसाद देकर उन्हें विदा करें।

अंत में स्वयं भोजन ग्रहण करें।

क्या न करें

इस दिन व्रत करने वाले स्त्री-पुरुष खट्टी चीज का न ही स्पर्श करें और न ही खाएं।

गुड़ और चने का प्रसाद स्वयं भी खाना चाहिए।

भोजन में कोई खट्टी चीज, अचार और खट्टा फल नहीं खाना चाहिए।

व्रत करने वाले के परिवार के लोग भी उस दिन कोई खट्टी चीज नहीं खाएं।

शुक्रवार की व्रत कथा

एक बुढ़िया थी। उसका एक ही पुत्र था। बुढ़िया पुत्र के विवाह के बाद बहू से घर के सारे काम करवाती, परंतु उसे ठीक से खाना नहीं देती थी। यह सब लड़का देखता पर मां से कुछ भी नहीं कह पाता। बहू दिनभर काम में लगी रहती- उपले थापती, रोटी-रसोई करती, बर्तन साफ करती, कपड़े धोती और इसी में उसका सारा समय बीत जाता।

काफी सोच-विचारकर एक दिन लड़का मां से बोला- ‘मां, मैं परदेस जा रहा हूं।’ माँ को बेटे की बात पसंद आ गई तथा उसे जाने की आज्ञा दे दी। इसके बाद वह अपनी पत्नी के पास जाकर बोला- ‘मैं परदेस जा रहा हूं। अपनी कुछ निशानी दे दो।’ बहू बोली- `मेरे पास तो निशानी देने योग्य कुछ भी नहीं है। यह कहकर वह पति के चरणों में गिरकर रोने लगी। इससे पति के जूतों पर गोबर से सने हाथों से छाप बन गई।

पुत्र के जाने बाद सास के अत्याचार बढ़ते गए। एक दिन बहू दु:खी हो मंदिर चली गई। वहां उसने देखा कि बहुत-सी स्त्रियां पूजा कर रही थीं। उसने स्त्रियों से व्रत के बारे में जानकारी ली तो वे बोलीं कि हम संतोषी माता का व्रत कर रही हैं। इससे सभी प्रकार के कष्टों का नाश होता है।

स्त्रियों ने बताया- शुक्रवार को नहा-धोकर एक लोटे में शुद्ध जल ले गुड़-चने का प्रसाद लेना तथा सच्चे मन से मां का पूजन करना चाहिए। खटाई भूल कर भी मत खाना और न ही किसी को देना। एक वक्त भोजन करना।

व्रत विधान सुनकर अब वह प्रति शुक्रवार को संयम से व्रत करने लगी। माता की कृपा से कुछ दिनों के बाद पति का पत्र आया। कुछ दिनों बाद पैसा भी आ गया। उसने प्रसन्न मन से फिर व्रत किया तथा मंदिर में जा अन्य स्त्रियों से बोली- ‘संतोषी मां की कृपा से हमें पति का पत्र तथा रुपया आया है।’ अन्य सभी स्त्रियां भी श्रद्धा से व्रत करने लगीं। बहू ने कहा- ‘हे मां! जब मेरा पति घर आ जाएगा तो मैं तुम्हारे व्रत का उद्यापन करूंगी।’

अब एक रात संतोषी मां ने उसके पति को स्वप्न दिया और कहा कि तुम अपने घर क्यों नहीं जाते? तो वह कहने लगा- सेठ का सारा सामान अभी बिका नहीं। रुपया भी अभी नहीं आया है। उसने सेठ को स्वप्न की सारी बात कही तथा घर जाने की इजाजत मांगी। पर सेठ ने इंकार कर दिया। मां की कृपा से कई व्यापारी आए, सोना-चांदी तथा अन्य सामान खरीदकर ले गए। कर्ज़दार भी रुपया लौटा गए। अब तो साहूकार ने उसे घर जाने की इजाजत दे दी।

घर आकर पुत्र ने अपनी मां व पत्नी को बहुत सारे रुपए दिए। पत्नी ने कहा कि मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है। उसने सभी को न्योता दे उद्यापन की सारी तैयारी की। पड़ोस की एक स्त्री उसे सुखी देख ईर्ष्या करने लगी थी। उसने अपने बच्चों को सिखा दिया कि तुम भोजन के समय खटाई जरूर मांगना।

उद्यापन के समय खाना खाते-खाते बच्चे खटाई के लिए मचल उठे। तो बहू ने पैसा देकर उन्हें बहलाया। बच्चे दुकान से उन पैसों की इमली-खटाई खरीदकर खाने लगे। तो बहू पर माता ने कोप किया। राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले जाने लगे। तो किसी ने बताया कि उद्यापन में बच्चों ने पैसों की इमली खटाई खाई है तो बहू ने पुन: व्रत के उद्यापन का संकल्प किया।

संकल्प के बाद वह मंदिर से निकली तो राह में पति आता दिखाई दिया। पति बोला- इतना धन जो कमाया है, उसका कर राजा ने मांगा था। अगले शुक्रवार को उसने फिर विधिवत व्रत का उद्यापन किया। इससे संतोषी मां प्रसन्न हुईं। नौ माह बाद चांद-सा सुंदर पुत्र हुआ। अब सास, बहू तथा बेटा मां की कृपा से आनंद से रहने लगे।

संतोषी माता आरती 

जय संतोषी माता, जय संतोषी माता

अपने सेवक जन की सुख सम्पति दाता. जय…

सुन्दर चीर सुनहरी, माँ धारण कीन्हों

हीरा पन्ना दमके, तन ॠंगार लीन्हों. जय…

गेरु लाल छटा छवि, बदन कमल सोहे

मन्द हसंत करुणामयी, त्रिभुवन मन मोहे. जय…

स्वर्ण सिंहासन बैठी, चवर ढुरे प्यारे

धूप, दीप, मधुमेवा, भोग धरे न्यारे. जय…

गुड़ अरु चना परमप्रिय, तामे सन्तोष कियो

संतोषी कहलाई, भक्तन वैभव दियो. जय…

शुक्रवार प्रिय मानत, आज दिवस सोही

भक्ति मण्डली छाई कथा सुनत मोही. जय…

मंदिर जगमग ज्योति, मंगल ध्वनि छाई

विनय करें हम बालक, चरनन सिर नाई. जय…

भक्ति भावमय पूजा, अंगीकृत कीजे

जो मन बसे हमारे, इच्छा फ़ल दीजे. जय…

दुःखी दरिद्री रोगी, संकट मुक्त किये

बहु धन धान्य भरे घर, सुख सौभाग्य दिये. जय…

ध्यान धरयो जान तेरो, मन वांछित फ़ल पायो.

पूजा कथा श्रवण कर, घर आन्न्द छायो. जय…

शरण गहे की लज्जा, रखियो जगदम्बे

संकट तू ही निवारे, दयामयी माँ अम्बे. जय…

संतोषी माँ की आरती, जो कोई गावे, मईया प्रेम सहित गावे

ऋद्धि – सिद्धि, सुख – सम्पत्ति, जी भर पावे. जय…

संतोषी माता व्रत फल

संतोषी माता की अनुकम्पा से व्रत करने वाले स्त्री-पुरुषों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

परीक्षा में सफलता, न्यायालय में विजय, व्यवसाय में लाभ और घर में सुख-समृद्धि का पुण्यफल प्राप्त होता है।

अविवाहित लड़कियों को सुयोग्य वर शीघ्र मिलता है। 

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डिसक्लेमर

‘इस लेख में निहित किसी भी जानकारी/सामग्री/गणना की सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संग्रहित कर ये जानकारियां आप तक पहुंचाई गई हैं। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त, इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी। ‘