सभी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये रविवार का व्रत सर्वश्रेष्ठ है। इस व्रत की विधि इस प्रकार है। सुबह उठकर नित्य क्रिया, स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। सूर्य भगवान को जल चढ़ायें और रविवार की कथा सुने या सुनायें।

पूरे दिन व्रत रखें, सूर्य अस्त होने के पहले हीं भोजन तथा फलाहार कर लें। पूजा समाप्ति के बाद रात को भगवान सूर्य को याद करते हुए तेल रहित (बिना नमक के) भोजन करना चाहिए। निराहार रहने पर अगले दिन सूर्य को जल देने के बाद ही भोजन करें। पांच वर्ष तक इसी प्रकार रविवार व्रत करने के बाद इस का उद्यापन करना चाहिए। इस व्रत को करने वाला व्यक्ति जीवन के सभी सुखों को भोग कर मृत्यु के बाद सूर्यलोक जाता है।

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष से सूर्यनारायण का व्रत प्रारम्भ होता है। शुक्ल पक्ष में जिस दिन पहला रविवार पड़े, उसी दिन से व्रत आरम्भ करना चाहिए। व्रतकर्ता को दिनभर निराहार रहकर सायंकाल सूर्यास्त होने से पूर्व, सूर्यदेव की पूजा करनी चाहिए। पूजन में कंडेल (कनइल) का फूल, लाल चंदन, लाल वस्त्र, गुलाल और गुड़ आदि वस्तुएँ लेनी चाहिए। घर को स्वच्छ जल से साफकर, पूजाघर या पूजास्थान में ताम्रनिर्मित भगवान सूर्य की प्रतिमा या चित्र स्थापित कर पूजन करें।

पूजन के अंत में घी मिले गुड़ से हवन करें। व्रत के दिन नमक, खट्टा भोजन या खट्टाई, तेल आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार निरंतर पाँच वर्षों तक व्रत रहकर सूर्य की पूजा करनी चाहिये। व्रत्काल में प्रति वर्ष एक-एक धान्य–अनाज का परित्याग करे, जैसे- प्रथम वर्ष- जौ, द्वीतिय वर्ष में गेहूँ, तृतीय में चना, चतुर्थ में तिल और पंचम मे उड़द ग्रहण नहीं करना चाहिए। व्रत की समाप्ति पर ये ही परित्याग अनाज 12 सेर (किलो) के परिमाण में ब्राह्मण को दान दें। अंत में, 15 ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें वस्त्र तथा दक्षिणा दें। 

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रविवार व्रत का महत्व

इस दिन भगवान सूर्यदेव की पूजा का विधान है। सूर्य-व्रत विधानपूर्वक करने से मनुष्य को अभीष्ट की प्राप्ति होती है। नारद पुराण में रविवार व्रत को सम्पूर्ण पापों को नाश करने वाला, आरोग्यदायक और अत्यधिक शुभ फल देने वाला माना जाता है। भगवान सूर्यदेव के प्रकोप से मनुष्य नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त एवं पीड़ीत होता है। अत: प्रत्येक नर-नारी को रविवार के दिन सूर्यदेव की पूजा एवं प्रतिदिन प्रात:काल सूर्य-नमस्कार करना चाहिए। हमारे देश के सम्पूर्ण उत्तर-भारत में कार्तिक शुक्ल पक्ष के छठी तिथि को “सूर्यषष्ठी” या “छठ” व्रत का पर्व मनाया जाता है। इस दिन अनेक नर-नारियाँ व्रत रहकर अर्घ्य द्वारा सूर्य की पूजा करती है।

रविवार व्रत पूजा की सामग्री–कंडेल (कनइल) का फूल, लाल चंदन, लाल वस्त्र, गुलाल और गुड़

सूर्य-पूजा की मासिक विधि 

चैत्र–इस महीने में पूड़ी, हलुवा आदि का नैवैद्य, मिष्ठान्न का दान एवं खीर का भोजन करना उत्तम है।

वैशाख–इस मास मे उड़द से बनी हुई इमरती चढ़ाना और दान देना चाहिए। भोजन में दूध का सेवन सर्वोत्तम है।

ज्येष्ठ–जेठ मास में दही, सत्तु आदि का अर्पण एवं दही, चावल आदि का दान तथा भोजन करना चाहिए।

आषाढ़–इस महीने में दही-चिड्वा का नैवैद्य, फलों का दान एवं दही-चिवड़ा भोजन करना चाहिए।

श्रावण–सावन के महीने में लड्डु-पूड़ी का भोग सूर्यदेव को लगाना चाहिए। ब्राह्मणों को लड्डु का दान एवं भोजन में मालपुआ श्रेष्ठ है।

भाद्रपद–इस महीने में घी, चावल, चीनी आदि का नैवैद्य, गुलगुला का दान एवं भोजन करना उचित है।

आश्विन–इस मास में रविवार के दिन चने से बने लड्डु का भोग लगाना, खीर का दान एवं लड्डु ही भोजन में ग्रहण करना चाहिए।

कार्तिक–इस महीने में अनेक पकवानों का नैवैद्य, गोदान एवं कलाकंद का सेवन करना श्रेष्ठ माना गया है।

मार्गशीर्ष–अगहन मास के रविवार के दिन मीठी खिचड़ी (मीठी भात) का भोग लगाना, गुड, तिल आदि का दान करना एवं तिल के लड्डु का भोजन करना सर्वश्रेष्ठ है।

पौष–पौष के महीने में चावल और मूँग चढ़ाकर सूर्यदेव की पूजा करे। दान में घी एवं भोजन में खीर पूड़ी लेना चाहिए।

माघ–इस महीने में चूरमा का भोग, मलाई, रबड़ी आदि का दान एवं उसी पदार्थ का भोजन भी करे।

फाल्गुन–इस महीने में गुझिया, मठरी आदि का भोग, खाजा आदि मिठाई का दान एवं बूंदी के लड्डु का भोजन करना उचित है।

उपरोक्त विधि से जो लोग सूर्यदेव की पूजा करते है, उन लोगों पर भगवान् सूर्यदेव की महान कृपा होती है।

रविवार व्रत कथा 

एक बुढ़िया थी। उसका नियम था प्रति रविवार को सबेरे ही स्नान आदि कर घर को गोबर से लीपकर फिर भोजन तैयकर कर भगवान को भोग लगाकर स्वयं भोजन करती थी।

ऐसा व्रत करने से उसका घर अनेक प्रकार के धन धान्य से पूर्ण था। श्री हरि की कृपा से घर में किसी प्रकार का विघ्न या दुःख नहीं था। सब प्रकार से घर में आनन्द रहता था।

इस तरह कुछ दिन बीत जाने पर उसकी एक पड़ोसन जिसकी गौ का गोबर वह बुढ़िया लाया करती थी विचार करने लगी कि यह वृद्घा सर्वदा मेरी गौ का गोबर ले जाती है। इसलिये अपनी गौ को घर के भीतर बांधने लग गई। बुढ़िया को गोबर न मिलने से रविवार के दिन अपने घर को न लीप सकी। इसलिये उसने न तो भोजन बनाया न भगवान को भोग लगाया तथा स्वयं भी उसने भोजन नहीं किया। इस प्रकार उसने निराहार व्रत किया।

रात्रि हो गई और वह भूखी सो गई। रात्रि में भगवान ने उसे स्वप्न दिया और भोजन न बनाने तथा लगाने का कारण पूछा। वृद्घा ने गोबर न मिलने का कारण सुनाया तब भगवान ने कहा कि माता हम तुमको ऐसी गौ देते है जिससे सभी इच्छाएं पूर्ण होती है। क्योंकि तुम हमेशा रविवार को गौ के गोबर से लीपकर भोजन बनाकर मेरा भोग लगाकर खुद भोजन करती हो। इससे मैं खुश होकर तुमको वरदान देता हूँ। निर्धन को धन और बांझ स्त्रियों को पुत्र देकर दुःखों को दूर करता हूँ तथा अन्त समय में मोक्ष देता हूँ।

स्वप्न में ऐसा वरदान देकर भगवान तो अन्तर्धान हो गए और वृद्घा की आँख खुली तो वह देखती है कि आँगन में एक अति सुन्दर गौ और बछड़ा बँधे हुए है। वह गाय और बछड़े को देखकर अति प्रसन्न हुई और उसको घर के बाहर बाँध दिया और वहीं खाने को चारा डाल दिया।

जब उसकी पड़ोसन बुढ़िया ने घर के बाहर एक अति सुन्दर गौ और बछड़े को देखा तो द्घेष के कारण उसका हृदय जल उठा और उसने देखा कि गाय ने सोने का गोबर किया है तो वह उस गाय का गोबर ले गई और अपनी गाय का गोबर उसकी जगह रख गई। वह नित्यप्रति ऐसा ही करती रही और सीधी-साधी बुढ़िया को इसकी खबर नहीं होने दी।

तब सर्वव्यापी ईश्वर ने सोचा कि चालाक पड़ोसन के कर्म से बुढ़िया ठगी जा रही है तो ईश्वय ने संध्या के समय अपनी माया से बड़े जोर की आँधी चला दी। बुढ़िया ने आँधी के भय से अपनी गौ को भीतर बाँध लिया। प्रातःकाल जब वृद्धा ने देखा कि गौ ने सोने का गोबर दिया तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही और वह प्रतिदिन गऊ को घर के भीतर ही बाँधने लगी।

उधर पड़ोसन ने देखा कि बुढ़िया गऊ को घर के भीतर बांधने लगी है और उसको सोने का गोबर उठाने का मौका नहीं मिला तो वह ईर्ष्या और डाह से जल उठी।

कुछ उपाय न देख पड़ोसन ने उस देश के राजा की सभा में जाकर कहा महाराज मेरे पड़ोस में एक वृद्घा के पास ऐसा गऊ है जो आप जैसे राजाओं के ही योग्य है, वह नित्य सोने का गोबर देती है। आप उस सोने से प्रजा का पालन करिये। वह वृद्घा इतने सोने का क्या करेगी।

राजा ने यह बात सुनकर अपने दूतों को वृद्घा के घर से गऊ लाने की आज्ञा दी। वृद्घा प्रातः ईश्वर का भोग लगा भोजन ग्रहण करने जा ही रही थी कि राजा के कर्मचारी गऊ खोलकर ले गये। वृद्घा काफी रोई-चिल्लाई किन्तु कर्मचारियों के समक्ष कोई क्या कहता।

उस दिन वृद्घा गऊ के वियोग में भोजन न खा सकी और रात भर रो-रो कर ईश्वर से गऊ को पुनः पाने के लिये प्रार्थना करती रही।

उधर राजा गऊ को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ लेकिन सुबह जैसे ही वह उठा, सारा महल गोबर से भरा दिखाई देने लगा। राजा यह देख घबरा गया।

सूर्य भगवान ने रात्रि में राजा को स्वप्न में कहा कि–’हे राजा! गाय वृद्घा को लौटाने में ही तेरा भला है। उसके रविवार के व्रत से प्रसन्न होकर मैंने उसे गाय दी थी।

प्रातः होते ही राजा ने वृद्घा को बुलाकर बहुत से धन के साथ सम्मान सहित गऊ बछड़ा लौटा दिया और उसकी पड़ोसिन को बुलाकर उचित दण्ड दिया। इतना करने के बाद राजा के महल से गन्दगी दूर हुई उसी दिन से राजा ने नगरवासियों को आदेश दिया कि राज्य की तथा अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये रविवार का व्रत रखा करो।

व्रत करने से नगर के लोग सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। कोई भी बीमारी तथा प्रकृति का प्रकोप उस नगर पर नहीं होता था। सारी प्रजा सुख से रहने लगी।

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